Saturday, 28 May 2016

रसब्रह्म

रसब्रह्म

नवललितवयस्कौ नव्यलावण्यपुन्जौ
नवरसचलचित्तौ नूतनप्रेमवृत्तौ।
नवनिधुवनलीलाकौतुकेनातिलोलौ
स्मर निभृतनिकुन्जे राधिकाकृष्णचन्द्रौ।।
द्रुतकनकसुगौरस्निग्धमेघौघनील-
च्छविभिरखिलवृन्दारण्यमुद्भासयन्तौ।
मृदुलनवदुकूले नीलपीते दधानौ
स्मर निभृतनिकुन्जे राधिकाकृष्णचन्द्रौ।।

श्रुतियों में विभिन्न नामों से परात्पर ब्रह्म-तत्त्व का वर्णन किया गया है और प्रसंगानुसार वह सभी सत्य है तथा सभी में एक पूर्ण सामञ्जस्य है। अन्न, प्राण, मन, विज्ञान[1] आदि विभिन्न नामों का निर्देश करने के पश्चात श्रुति ने ‘आनन्द’ के नाम से ब्रह्म का वर्णन किया—

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्, आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।

अर्थात यह निश्चयपूर्वक जान लिया कि ‘आनन्द’ ही ब्रह्म है, आनन्दस्वरूप परात्पर तत्त्व से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्दस्वरूप में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

श्रुतियो ने विभिन्न प्रकार से ‘आनन्दब्रह्म’ का सविस्तार वर्णन किया। परंतु परात्पर तत्त्व के स्वरूप-निर्देश की चर्चा अभी अधूरी ही रह गयी। अतएव श्रुति ने परात्पर तत्त्व की रसस्वरूपता या ‘रसब्रह्म’ की रहस्यमयी चर्चा करते हुए संक्षेप से कहा—

यद्वै तत् सुकृतम्। रसो वै सः, रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।[1]
‘जो स्वयं कर्ता-स्वयंरूप तत्त्व है, वही रस है - पूर्ण रसस्वरूप है। उस रसस्वरूप को प्राप्त करके ही जीव आनन्द युक्त होता है।’

जो ‘आनन्दब्रह्म’ जगत् का कारण है, यह ‘रसब्रह्म’ ही उसका मूल है। यह ‘रसब्रह्म’ ही ‘लीलापुरुषोत्तम’ और ‘रसिक ब्रह्म’ है। जैसे सविशेष धूप ही निर्विशेष या अमूर्त सुगन्ध का विस्तार करता है, वैसे ही एक सविशेष रसतत्त्व के अवलम्बन से ही ‘निर्विशेष आनन्त-तत्त्व’ का प्रकाश होता है। अतएव जैसे धूप ही सौरभ की प्रतिष्ठा है, वैसे ही ‘रस’ ही ‘आनन्द’ की प्रतिष्ठा है। सविशेष रसब्रह्म में ही निर्विशेष आनन्दब्रह्म प्रतिष्ठित है। रसरूप भगवान श्रीकृष्ण ने इसी से ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ की घोषणा करके इस सत्य सिद्धान्त को स्पष्ट किया है।

रस की उपलब्धि में भाव आवश्यकता
इस ‘रस’ की उपलब्धि ‘भाव’ के बिना नहीं होती। ‘भावुक’ हुए बिना ‘रसिक’ नहीं हुआ जाता। ‘भावग्राह्य’ या भावसाध्य रस का प्रकाशन - आस्वादन भाव के बिना सम्भव नहीं। अतएव जहाँ ‘रस’ का प्रकाश है, वहाँ भाव की विद्यमानता है ही। इसी से प्रेमरसास्वादनकारी ज्ञानी पुरुषों ने यह साक्षात्कार किया है कि सृष्टि के मूल में - प्रकाश और प्रलय सभी अवस्थाओं में - भावपरिरम्भित, भाव के द्वारा आलिंगित रस के उत्स - मूल स्रोत से ही रसानन्द की नित्य धारा प्रवाहित है।

इस प्रकार जिस रस और भाव की लीला से ही - उनकी नृत्युभंगिमा से ही समस्त विश्व का विविध विलासवैचित्र्य सतत विकसित, अनुप्राणित और आवर्तित है, सभी रसों और भावों का जो मूल आत्मा और प्राण है, वह एक महाभावपरिरम्भित रसराज या आनन्दरस-विलास-विलसित महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से समन्वित श्रीकृष्ण ही (दूसरे शब्दों में अभिन्नतत्त्व श्रीराधा-माधव ही) समस्त शास्त्रों के तथा महामनीषियों के द्वारा नित्य अन्वेषणीय परात्पर परिपूर्ण तत्व हैं। 
एक परम् दिव्यतम सन्त !!
जय जय श्यामाश्याम !!!

No comments:

Post a Comment