Saturday, 28 May 2016

भाव का अभिप्राय - भक्ति

भाव का अभिप्राय - भक्ति
‘भाव’ शब्द का अभिप्राय ‘भक्ति’ से है। भगवान भावसाध्य - भावग्राह्य हैं, इसका अर्थ है - वे भक्ति से प्राप्त होते हैं। भगवान ने कहा है - मैं एकमात्र अनन्य भक्ति से ही ग्राह्य हूँ - ‘भक्त्याहमेकया ग्राह्यः’। यही परमानन्द का रसास्वादन है। भक्तिशून्य या भावरहित होकर कोई भी (किसी भी विषय से किसी भी परिस्थिति में) इस आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता और समस्त भक्ति की मूल आकर हैं - श्रीराधा। जैसे समूर्त रसराज श्रीकृष्ण से ही समस्त रसों का आविर्भाव हुआ है, वैसे ही मूर्तिमती महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से ही अमूर्त और मूर्त सभी भावों का - विभिन्न भक्ति-भावों का, भक्ति-स्वरूपों का विस्तार हुआ है और भावानुसार भक्ति-स्वरूपों में से स्वरूपानुसार ही रसतत्त्व की उपलब्धि होती है।
जैसे एक ही प्रकाश-ज्योति के नीले, पीले, लाल, हरे आदि विविध वर्णों के स्फटिकों पर पड़ने से विविध वर्णविशेष दिखायी देते हैं, वैसे ही भक्ति के रूप में प्रकट श्रीराधा ही अमूर्त भावविशेष के रूप में दास्य, सख्य, वात्सल्यादि भाव वाले विभिन्न भक्तों में उसी रूप में प्रकट होकर उसी के अनुसार उसी के उपयोगी रसतत्त्व को प्राप्त कराती है। पटरानी-रूप में, लक्ष्मी आदि के रूप में, गोपीरूप में जितनी भी भगवान की कान्ता देवियाँ हैं, वे सभी श्रीराधा की समूर्त अवस्थाविशेष हैं। जिस अवस्था में महाभावरूपा स्वयं राधा और रसराज श्रीकृष्ण प्रेमविलास-वारिधि में लीलायमान हैं, जहाँ ‘रमण’ और ‘रमणी’ की भेदबुद्धि की भी कल्पना नहीं रह जाती, वह सम्पूर्ण रस-भावाद्वैत ही विशुद्ध प्रेमविलास की असीम सीमा है— निरवधि अवधि है। श्रद्धेय पौद्दार भाई जी । जय जय श्यामाश्याम ।।

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