Tuesday, 17 May 2016

हित वृन्दावन 1

हित वृन्‍दावन

उपास्‍य तत्‍व के साथ उसके परम-पद, लोक किंवा स्‍थान की योजना वेदों के समय से ही होती चली आई है। वेदों और उपनिषदों में त्रिपाद्विभूति , महिमा, विष्‍णुपद, ब्रह्मलोक, परमव्‍योम, गुहा आदि की योजनाएं देखने को मिलती हैं। ऋग्‍वेद और यजुर्वेद में जहां ‘गोपविष्‍णु ‘ का उल्‍लेख हैं वहां उनके लोक का भी है, जिसमें बडे़-बडे सींग वाली गायें इधर उधर घूमती रहती हैं-‘यत्र गावो भूरि श्रृंगा आयास:’’। वृहदारण्‍यक उपनिषद्[1] और छान्‍दोग्‍य उपनिषद्[2] में ब्रह्मलोक का वर्णन है जहां पहुँच कर जीव को फिर भव-विप्‍लव में लौटना नहीं पड़ता-‘’ब्रह्मलोक मभिसम्‍पद्यते न च पुनरावत्‍ते न च पुनरावर्तते।‘’[3] इसके अतिरिक्‍त हर एक देवता के भी लोक निर्दिष्‍ट हैं-जैसे अगिनलोक, वायुलोक, आदित्‍यलोक आदि। इन सब लोकों, पदों और स्‍थानों का स्‍वरूप, सवभावत:, इनके अधिष्‍ठातृ देवता के अनुरूप होता है।

वैष्‍णव संप्रदायों के उदय के साथ, प्रधनतया आगमों और पुराणों पर आधारित, वैष्‍णव उपास्‍य -तत्‍व का विकास हुआ और विभिन्‍न उपास्‍य स्‍वरूपों के अनुरूप वैकुण्‍ठ, गो-लोक आदि स्‍थानों की योजना को महत्‍व मिला। इस योजन में वृन्‍दावन गोलोक का एक विशेष भाग है और रासलीला का स्‍थान होने के कारण सर्वश्रेष्‍ठ है। प्रकट लीला और अप्रकट लीला के भेद से वृन्‍दावन के दो रूप माने गये हैं-एक भू-वृन्‍दावन और दूसरा त्रिपाद्विभूतिस्‍थ किंवा गोलोकस्‍थ वृन्‍दावन और दोनों का अभेद प्रतिपादित किया गया है। विष्‍णु पुराण में भगवान की तीन शक्तियां मानी गई हैं-ह्रादिनी, संधिनी और संवित्। इनमें से वृन्‍दावन संधिनी शक्त्‍िा का विलास है और चिन्‍मय रूप है।

राधावल्‍ल्‍भय सिद्धान्‍त में प्रेम का प्रथम सहज रूप, उसकी सहज सुन्‍दर आकृति सुन्‍दर आकृति, श्री वृन्‍दावन है। इस सिद्धान्‍त में सभी रूप प्रेम के ही रूप हैं, किन्‍तु इन सब में प्रेम के प्रकाश का तारतम्‍य रहता है, इनमें प्रेम की शुद्ध, पूर्ण एवं स्‍वभाविक अभिव्‍यक्ति नहीं होती। अपने जिन चार रूपों में प्रेम पूर्ण शुद्ध स्थिति में व्‍यक्‍त होता है, उनको प्रेम का ‘सहज रूप’ कहा जाता है।
पूर्ण प्रेम नित्‍य, नूतन और एकरस होता है। स्‍वभावत: वृन्‍दावन भी नित्‍य नूतन और नित्‍य एकरस रहता है। नित्‍य नूतन रहेन के कारण वह परम सौन्‍दर्य का और नित्‍य एक-रस रहने कारण परमे प्रेम का धाम है। भारतीय रस-परंपरा में कमादेव को परम सौन्‍दर्य का प्रतीक माना जाता है। इन कामदेवों के समूह अपने परिकर-सहित वृन्‍दावन के नवल-निकुंज -मंदिर को रात-दिन सँवारते रहते हैं;

अति कमनीय विराजत मंदिर नवल निकुंज।
सेवत सगन प्रीतिजुत दिन मीनध्‍वज पुंज।।[1]

‘वृन्दावन की भूमि सहज रूप से हेममयी है जिसमें अनेक रंग के रत्‍न इस प्रकार जड़े हुए हैं कि उनके द्वारा विचित्र प्रकार के चित्रों की रचना हेा रही है और उनमें से छवि की तरंगें उठती रहती हैं। वृन्‍दावन में कपूर की रज झलकती रहती है और उसको देखकर नेत्र और हृदय शीतल हो जाते हैं। यहां की प्रत्‍येक लता कल्‍पतरू हैं और प्रत्‍येक फूल परिजात है जो सहज एकरस रह कर यमुनाकूल पर झलमलाता रहता है। यहां सुन्‍दर, सुभग तमाल से कंचन की लता लिपट रही है जिसे देख कर नेत्रों को चकाचौंधीन होती है। यहां की कुंजें ऐसे अद्भुत प्रकाश से झलमलाती रहती हैं कि करोड़ों सूर्य- चन्‍द्र भी उसकी समानता नहीं कर सकते। वृन्‍दावन के चारों ओर अथाह शोभा लिये यमुना बहती रहती है, मानों श्रृंगार रस कुंडल बांधकर प्रवाहित हो रहा है।‘

‘वृन्‍दावन में मधुर गुंजार करती हुई मधुपावली मत्‍तधूमा करती है, मानो अनुराग के मेध मदगर्जन कर रहे हैं। यहां के विहंग मधुर गति-ताल से कूजते रहते हैं, मानों द्रुमों पर चढी रागनियां तान-तरंग गा रही हैं। यहां मृगी, मयूरी और हंसिनी प्रेमानंद से भरी हुई श्‍यामश्‍यामा रूप युगलकमलों का मकरंद मत्‍त होकर पान करती रहती हैं। वृन्‍दावन-बाग अनेक भांति से फूल रहा है और यहां रति और सोहनी हाथ में लिये पुष्‍प -पराग झाडती रहती हैं। वृन्‍दावन की प्रत्‍येक कुंज में शय्या-रूपी आसन झलमलाता रहता है और प्रत्‍येक कुंज युगल की सेवा में उपयोगी नित्‍य नूतन और सहज सामग्री से पूर्ण रहती है, जिसकी छवि के कण का भी वर्णन नहीं किया जा सकता। यह वन नाना प्रकार के सुगंधि-द्रव्‍यों से सुवासित रहता है और यहां मोद के उदगार उठते रहते हैं। सारा वन इस प्रकारा जगमगाता रहता है मानों करोड़ों दामिनी धन में सुशोभित हैं।'
--   क्रमशः ।।।।

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