हित वृन्दावन 3
वृन्दावन की एकरस प्रेमरूपता को अनेक सुन्दर प्रकारों में व्यक्त किया गया है। ‘श्रीवृन्दावन में आनन्द -सिन्धु की तरंगे उठती रहती हैं। वहां अनुराग के मेघों के मनद वर्षणों में छवि के दो फूल श्याम-श्यामा फूले रहते हैं। वृन्दावन-रूप सरोवर में गम्भीर प्रेम-नीर भरा है जिसमें दोनों रसिक मुग्ध भाव से मज्जन करते रहते हैं:-
श्री वृंदावन मांहि, आनंद सिधु तरंग उठैं।
घन अनुराग चुचांहिं, फूले छवि के फूल द्वै।।
वृन्दावन सरवर भरयौ, प्रेम-नीर गंभीर।
तामें मज्जत रसिक दोऊ, बिसरे नैननि-चीर।।[1]
काव्य-रस की दृष्टि से वृन्दावन केा उद्दीपन विभाव माना जा सकता है और वह श्याम-श्यामा की प्रीति का उद्दीपन करता भी है।
किन्तु वृन्दावन-रस-रीति में श्यामाश्याम की उज्ज्वल रस-मयी लालाओं के निर्माण में वृन्दावन का सक्रिय सहयोग रहता हैं। अनेक लीलायें ऐसी होती हैं जिनका प्रवर्तन ही वृन्दावन के द्वारा होता है। वृन्दावन का सक्रिय सहयोग रहता है। अनेक लीलायें ऐसी होती हैं जिनका प्रवर्तन ही वृन्दावन के द्वारा होता होता है। वृन्दावन के द्वारा आयोजित लीलाओं की विशेषता यह है कि उनमें रस के बड़े विरल अंगों का प्रकाशन होता है। हिताचार्य ने अपने एक पद में इस प्रकार की एक लीला का वर्णन किया है। वे कहते हैं, ‘वृन्दावन के द्वारा आयोजित लीलायें श्यामसुन्दर को प्रिय हैं। वृन्दावन के पत्र-प्रसून इतने निर्मल हैं कि उनमें श्याम-श्यामा के प्रतिबिंब पड़ते रहते हैं। किन्तु कभी ऐसा होता है कि इनमें पड़ा हुआ श्याम सुन्दर का प्रतिबिंब भी श्रीराधा का ही प्रतिबिंब मालूम होता है। अपने और अपनी प्रियतमा के प्रतिबिंबों की समता होने पर श्याम सुन्दर संकोच में पउ़ जाते हेा और इस विचार से कि प्रिया का परिरंभण करने की चेष्टा करने पर कहीं वे अपने प्रतिबिंब का ही आलिंगन न करलें, वे श्रीराधा के स्वाभाविक अंग-सौरभ का अनुसंधान पकड़ कर अपने प्रतिबिंब को बचाते हुए चलते हैं। उधर श्री राधा भी अपने प्रियतम को संभ्रम देती है और नायक की भांति रतिगण-कलह मचाती हैं। अपनी प्रिया का स्पर्ष करने की प्रत्येक चेष्टा विफल होती देख कर और यह समझ कर कि इस समय सारी बातें उलटी हो रही है, वे अपने हाथ से अपने नेत्रों में अंजन की रेखा बनाते हैं और इस प्रकार अपनी प्रिया की सखी बन कर उनको प्राप्त कर लेते हैं। क्योंकि कि वृन्दावन के पत्र-प्रसूनों में सखियों का प्रतिबिंब प्रिया-रूप में नहीं पड़ता।'
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