Friday, 27 May 2016

हित वृन्‍दावन 6

हित वृन्‍दावन 6

यद्यपि राजत अवनि पर सबते ऊँची आहि।
ताकी सम कहिये कहा श्रीपति बंदत ताहि।।
तजि के वृन्‍दा विपिन कौं और तीर्थ ले जात।
छांडि विमल चिंतामणिहि कौडी कौं ललचात।।

प्रश्‍न यह होता है कि यदि भूतल-स्थित प्रगट -वृन्‍दावन ही नित्‍य - वृन्‍दावन है, तो उसकी इस प्रकार प्रतीति हर एक को क्‍यों नहीं होती ? श्री ध्रुवदास जी उत्‍तर देते है :-

‘इसमें दोष दृष्टि का है, द्दश्‍य कहा नहीं है। वृंदावन अपने अनंत प्रेम-वैभव को लेकर नित्‍य प्रकाशित है आंख रते हुए न दीखना माया का रूप हे। द्दश्‍यमान रज्‍जु में सर्प की मिथ्‍या प्रतीति को ही माया कहते हेा। सारे संसार को मोह-गर्त में डालने वाली यह श्रीकृष्‍ण की माया ही है, जिसके कारण वृंदावन-रूपी रत्‍न को अपने बीच में पाकर भी हम उसको पहिचान नहीं पाते और उसका निरादर कर देते है’-

प्रकट जगत में जगमगै वृंदा विपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं यहा माया कौ रूप।।
पाइ रतन चीह्रौ नहीं दीन्‍हौं करतें डार।
यह माया श्रीकृष्‍ण की मोह्यौ सब संसार।।[1]

जिन रसिक उपासकों की दृष्टि सहज प्रेम के उन्‍मेष से निर्मल बनी है, उनको भूतल -स्थिर वृन्‍दावन के खग, मृग, वन-बेली प्रेममय दिखलाई दिये हैं और उन्‍होनें इन सबका दुलार अपनी रचनाओं में किया है। वृंदावन के वृक्षों का गान करते हुए व्‍यासजी कहते हैं-‘मुझको वृन्‍दावन के वृक्ष प्‍यारे लगते है। जिनको देखकर सम्‍पूर्ण कामनायें विलीन हो जाती हैं वे राधा-मोहन इनके नीचे विहार करते हैं। यह प्रेमामृत से सींचे हुए हैं, इसीलिये इनके नीचे माया-काल प्रवेश नहीं कर पाते। इन वृक्षों की एक शाखा तोड़ने से श्री हरि को कोटि गौ-ब्रह्मणों की हत्‍या से अधिक कष्‍ट होता है। रसिकों को यह सब कल्‍पवृक्ष मालूम होते हैं और विमुखों को ढ़ाक -पिलूख दिखलाई देते हैं। इनका भजन जिह्रा के सम्‍पूर्ण स्‍वादों को छोड़ कर किया जाता है। गोपियों ने गृहादिक की सुख-संपत्ति को छोड़ कर इनका भजन किया था। यही रस पान करके परीक्षित ने भोजन छोड़ दिया था और शुक-मुनि को अपने ब्रह्मज्ञान से असंतोष हो गया था। मैंने पपीहा बन कर वृन्‍दावन घन का सेवन किया है और मेरे दुख के सर-सरिता सूख गये हैं। 'प्‍यारे वृन्‍दावन के रूख।
जिनितर राधा -मोहन विहरत देखत भाजत भूख।।
माया काल न व्‍यापै जिनितर सींचे प्रेम-पियूख।
कोटि गाय बांभन हत शाखा तोरत हरिहिं विदूख।।
रसिकनि पारिजात सूझत हैं विमुखनि ढ़ाक-पिलूख।
जो भजिये तौ तजिये पान मिठाई मेवा ऊख।।
जिनि के रस-बस गोपिनु छांडे सुख-सम्‍पति गृहतूख।
मणि कंचन मय कुंज विराजत रंध्रनि चन्‍द्र मयूख।।
जिहिं रस भोजन तज्‍यौ परीक्षित उपज्‍यौ शुकहिं अतूख।
व्‍यास पपीहा बन-घन सेयौ दुख-सलिता-सर सूख।।[1]

रसलीला का आधार होने के कारण वृन्‍दावन को रसोपासना का भी स्‍वाभाविक आधार माना गया है। उपासना की दृष्टि से वह रस का सहज धर्म है। आधार का काम धारण करना है और जो धारण करता है। वह धर्म कहलता है, ‘धारणात् धर्ममित्‍याहु:।‘ हितप्रभु के निज-धर्म का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं-‘वहां वृन्‍दावन की स्थिति है, जहां प्रेम का सागर बहता है'

अब निजु धर्म आपुनौं कहत, तहां नित्‍य वृंदावन रहत।
बहत प्रेम सागर जहां।।[2]

वृन्‍दावन की स्थिति के आधार पर ही प्रेम-सागर बहता है। वृन्‍दावन ने ही प्रेम के सागर को धारण कर रखा है और धारण करने के काराण ही धर्म है। श्री वृन्‍दावन किंवा प्रेम-धर्म का साधन नवधा-भक्ति है। ‘साधन सकल भक्ति जा तनौ।' जयजय श्यामाश्याम । क्रमशः ...

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