Monday, 2 May 2016

प्रेम-पन्थ सखि ! सबसों न्यारो

प्रेम-पन्थ सखि ! सबसों न्यारो।
प्रेम-काम दोउ राग रूप हैं, तदपि भेद इन को अति भारो॥
प्रेम प्रकास पुन्य अति उज्ज्वल, काम अन्ध अघ अरु अतिकारो।
प्रेम दिव्य मुक्तिहुँ सों दुरलभ, काम आसुरी बाँधनहारो॥
प्रेम सदा प्रीतम-सुख-साधन, निज सुखको तहँ कछु न सहारो।
काम देह-सुख में नित बाँधत, भोग-रोग ही तहँ अति खारो॥
परम त्यागमय होत प्रेम सखि! प्रिय के हित तपहूँ तहँ प्यारो।
काम निपट स्वारथ ही सजनी! प्रिय-सुख तहाँ न कोउ निरधारो॥
सुद्ध प्रेम हरिहुँ कों बाँधत, प्रेमी सदा स्यामकों प्यारो।
काम काय-बन्धनमें बाँधत, है वह नित्य नरक को द्वारो॥
कहँ लगि कहहिं दोष-गुन इनके, एक अमृत विष अपर विचारो।
एक स्वयं हरिरूप अनामय दूजो काल-रूप अति कारो॥
जय जय श्री राधे !

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