Monday, 16 May 2016

वृन्दावन उत्प्रेरक लता आदि और यमुना जी

[5/16, 14:15] Sarojini Vrindavn Mumbai Fb: राधे राधे ,,श्री वृन्दावन श्री प्रियाजी का वो निज धाम है,जिसमें देह और देही का भेद नहीं है .श्री वृन्दावन की तरु-लता,श्री वृन्दावन की रज दोनों हीं श्री वृन्दावन की आत्मा हैं ,इन्हीं के कण-कण में वृन्दावन का और श्री प्रियाजी के चरणों का वो प्रेम प्रवाहमान होता है ,,
श्री वृन्दावन के वृक्ष उत्प्रेरक हैं,जैसे प्रयोगशाला में दो रसायनों को एक साथ रखें या मिला  तो भी उनमें कोई प्रतिक्रिया नहीं होती ,लेकिन उनमें दो बूंद उत्प्रेरक की मिला दें तो,तो विस्फोट सा होता है ..वैसे ही भजन करना हम सबका सहज स्वरूप होना चाहिए और है भी ...और श्री वृन्दावन की सहज कृपा प्रसिद्ध है ..हम वृन्दावन जाते तो हैं .पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती ,क्यों?? क्योकि कोई उत्प्रेरक चाहिए ,,,,और वो उत्प्रेरक है,श्री वृन्दावन की तरू-लता ,वृक्ष-वल्लरियाँ ,द्रुम-बेली और वृन्दावन की रज उत्प्रेरक है ,,जैसे बादल समुद्र का खारा जल लेकर ,उसको मीठा करके हम पर बरसा देता है ,वही खारा जल जो पीने योग्य नहीं होता ,उसे जब बादल सौम्य करके वर्षा के रूप में देता है तो वः संचय करने योग्य हो जाता है ,ठीक उसी तरह श्री वृन्दावन की ये जो तरू=लता .द्रुम-बेली-वल्लरियाँ हैं,ये भी मेघ हैं बादल  हैं ,इनकी छाया में जब श्री प्रिया-प्रियतम के ये गौर-श्याम रस के समुद्र बहते हैं ..फिर उसके पश्चात इनकी छाया में बैठकर कोई प्रेमी हृदय उतप्त होता है, जब प्रेमी हृदय श्री प्रिया  और प्रियतम के उस प्रेम-भाव में अपने आप को निमज्जित  कराने  का प्रयास करता है तो उस पर ये तरू-लता ,द्रुम-बेली-वल्लरियाँ कृपा करके , श्री प्रिया और लाल जी के रूप का रस  उस पर बरसा देते हैं,इसलिए श्री ध्रुवदास जी कहते है कि ''' ऐसो प्रेम न कहूँ ध्रुव, है वृन्दावन माहिं।'''इस प्रकार का प्रेम श्री वृन्दावन को छोड़कर अन्यंत्र कही नही है।[[साभार==रसिक वाणी ]]जय श्री राधे
[5/16, 22:12] Sarojini Vrindavn Mumbai Fb: राधे राधे ..श्री यमुनाजी  का प्रवाह श्री प्रियाजी और लाल जी के हृदय से उच्छलित प्रेम रस की धार है ,जब वो प्रेम श्री प्रियालालजी के हृदय में भी नहीं समाता तो ,श्री प्रिया लाल जी के विलास-रस की धार ही श्री यमुना जी के रूप में प्रवाहित हो जाती है.,,इसलिए ये कालिंदी का कूल प्रिया-प्रियतम को इतना प्रिय है कि रस रानी यमुना जी के इसी प्रेम रस के  गोद में ही प्रिया-प्रियतम खेलते हैं,,इसी प्रेम रस प्रवाह में श्री वृन्दावन आवृत है इसी प्रेम रस प्रवाह के आवरण में प्रिया-प्रियतम विलसते है ,
सहचरियों के एक एक चेष्टा के मूल में विशुद्ध प्रेम है ,,आज सहचरियों ने कितने प्रेम में भरकर प्रिया-प्रियतम को अंग - राग लगाया है ,एक तो वह  प्रेम रस से भरा अंग- राग उसको प्रिया-प्रियतम के अंगो का स्पर्श प्राप्त हुआ है,वही अंग -राग से सुसज्जित श्री अंग लेकर जब प्रिया-प्रियतम श्री यमुनाजी में प्रेम-कल्लोल करते हैं,और उनके श्री अंगों का अंग -राग श्री यमुना जी वहन करती है तो .तो रसिक संतजन कहते है ,धन्य आपकी महिमा है ,,आप दुरंत मोह का भंजन करने वाली है ,,हे रस रानी यमुना जी! आपकी जय हो ....जय श्री राधे [[[आभार===रसिक वाणी ]]

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