Wednesday, 18 May 2016

हित वृन्दावन 2

हित वृन्‍दावन 2

वृन्‍दावन-रस के रसकिों ने जिस वृन्‍दावन को अपनी वाणी में प्रत्‍यक्ष करने की चेष्‍टा की है, वह अनंत सौन्‍दर्य का धाम है। उसका कण कण सुन्‍दर है और उसमें सौन्‍दर्य की तरगें उठती रहती हैं। अनंत सौन्‍दर्य सहज रूप से एकरस प्रेम के साथ बँधा होता है और, वास्‍तव में तो, गुँथा होता है। वृन्‍दावन प्रेम की वह भूमिका है जहां प्रेम और सौन्‍दर्य एक दूसरे में ओत -प्रोत रहते हैा और जहां एकरस प्रेम का ही स्‍फुरण नित्‍य होता है। एक श्री ध्रुवदास बतलाते हैं-‘वृन्‍दावन में आनन्‍द का रंग नित्‍य छाया रहता है; वहां सोच और दुचित्‍तता का लेश भी नहीं है। वृन्‍दाविपिन-नरेश वहां एक-छत्र रस-राज्‍य का उपभोग करते रहते हैं;

आनंद कौ रँग नित जहां सोच न दुचितई लेस।
इक छत राजत राजरस वृन्‍दाविपिन नरेस।।[1]

प्रेम के साथ कामना का योग होते ही उसमें सोच और दुचित्‍तता का प्रवेश हो जाता है। संपूर्णतया निष्‍काम प्रेम ही एकरस होता है और एकरस प्रेम में ही सोच और चित्‍त - चांचल्‍य को स्‍थान नहीं होता।

एकरस प्रेम की गति धारावाहिक होती है और वह धारा अखंड होती है। प्रेम की अखंडित धारा में अन्‍तर को- विरह-वियोग -को अवकाश नहीं होता। वृन्‍दावन वह एक-रस स्‍थान बतलाया गया है जहां कामदेवों की सेना सेवा में नियुक्‍त रहती हैं-

अब सोई कहौं सुनि लीजै। तहां सुप्रेम एक रस पीजै।।
वृन्‍दा विपिन एक रस ऐना। तहां सेवत मैननि की सेना।।

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