Tuesday, 24 May 2016

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा 3

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा 3

क्रमशः ...
हिताचार्य की श्रीराधा अपने अद्भुत प्रेम- रूप और गुणों के कारण श्रीकृष्‍णाराध्‍या हैं और गुरु-रूपा हैं। उनकी यह दो विशेषताऐं उनको उनके अन्‍य स्‍वरूपों से भिन्न बनाती हैं। यह दोनों विशेषताऐं नित्‍य प्रेम-विहार में भी सुस्‍पष्ट दिखलाई देती हैं और इन्‍हीं को हितप्रभु ने अपनी सेवा-पद्वति में प्रदर्शित किया है।

नित्‍य प्रेम- विहार में, श्रीराधा अपनी सहचरियों की तो गुरु हैं ही और उनको संगीत, नृत्‍य, माला ग्रन्‍थन, चन्‍दन- निर्द्यर्षण आदि की शिक्षा देती हैं। साथ ही अपने प्रियतम की भी वे शिक्षा- गुरु हैं। स्‍वामी हरिदास जी और व्‍यासजी ने अपने कई पदों में श्रीराधा के इस रूप के चित्त उपस्थित किये हैं। व्‍यासजी का एक प्रसिद्ध पद देखिये;

पिय कौं नाचन सिखवत प्‍यारी। वृन्‍दावन में रास रच्‍यौ है शरद चन्‍द उजियारी। ताल-मृदंग, उपंग बजावत प्रफुलित ह्रै सखि सारी।। बीन,बैनु-धुनि नूपुर ठुमकत खग्-मृग दसा विसारी। मान-गुमान लकुट लिये ठाड़ी डरपत कुंज विहारी।। व्‍यास स्‍वामिनी की छवि निरखत हंसि-हंसि दै करतारी।

स्‍वामी हरदिासजी ने कहा है ‘कुंज विहारी नाचने में निपुण हैं और लाड़िली नचाने में कुशल हैं। वे विकट ताल पकड़ कर अपने प्रियतम के साथ ‘ताता- थेई’ बोलती हैं। तांडव, लास्‍य एंव अनेक नृत्‍य- भेदों की जो विभिन्न रूचित उनके चित्त में उठती है, उनक कौन गिन सकता है ? मेरी स्‍वामिनी श्रीश्‍यामा के आगे अन्‍य सब गुणी फीके पड़ गये हैं।'

कुंज विहारी नाचत नीके लाड़िली नचावत नीके।
औघर ताल धरै श्रीश्‍यामा ताता थेई ताता थेई बोलत संग पी के।।
तांडव, लास्‍य औरअंग कौ गनै जे-जे रुचि उपजत जी के।
श्रीहरिदास के स्‍वामी कौ मेरु सरस बन्‍यौ और गुनी परे फीके।।

हितप्रभु की यह श्रीराधा सुपूर्णतया भाव- स्‍वरूपा हैं किन्‍तु यह भाव नित्‍य प्रगट है। राधा-सुधा- निधि में श्रीराधा को ‘परम -रहस्‍य’ ‘पूंजीभूत रसामृत,’ ‘प्रेमानंद- घनाकृति,’ ‘निखिल निगनिगभागम अगोचर’ आदि कहने के साथ ‘वृषभानु की कुलमणि’ और ‘ब्रजेन्‍द्र- गृहिणी यशोदा का गोविन्‍द के समान प्रेमैक पात्रमह:बतलाया गया है। इन अद्भुत श्रीराधा में ‘प्रमोल्‍लास की सीमा, परम रस-चमत्‍कार – वैचित्रय की सीमा, सौन्‍दर्य की सीमा, नवीन रूप-लावण्‍य की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, वात्‍सल्‍य की सीमा, सुख की सीमा, और रति-कला केलि-माधुर्य की सीमायें आकर मिली हैं।’

इनके स्‍वरूप का निर्माण ‘लावण्‍य के सार, सुख के सार, कारुण्‍य के सार, मधुर छवि- रुप के सार, चातुर्य के सार, रेति- केलि-विलास के सार और संपूर्ण सारों के सार के द्वारा हुआ है।’

इन असाधारणा वृषभानु नंदिनी का परिचय देते हुए सेवकजी कहते हैं, वे सुभग सुन्‍दरी हैं, उनका सर्वांग सहज शोभा से मंडित है और उनका रूप भी सहज है। वे सहज आनंद का वर्णन करने वाली मेघ माला हैं और सहज-रूप वृन्‍दावन की नित्‍य उदित चन्द्रिका हैं। उनकी नित्‍य नवल- केलि सहज है आर उनकी प्रीति एवं सुख चैन सहज है। उनके प्रत्‍येक अंग में सहज माधुर्य भर रहा है, जिसका वर्णन मुझसे नहीं होता।’

सुभग सुन्‍दरी, सहज शोभा सर्वांग प्रति, सहज रूप वृषभन नंदिनी।
सहजानंद कादंबिनी, सहज विपिन वर उदित चंदिनी।।[1]

सहज केलि नित-नित नवल, सहज रंग सुख-चैन।
सहज माधुरी अंग प्रति, मोपै कहत बनै न।।

सहज माधुर्य सर्वथा अवर्णीय होता है। तीनों लोकों में जिसकी समता नहीं है, उसका वर्णन कैसे हो ? हितप्रभु ने कहा है ‘श्रीराधा के अंगों के सहज माधुर्य की बात सुन कर देवलोक भू लोक और रसातल के कबि-कुल की मति दहल जाती है। वे इस चक्कर में पड़ जाते हैं कि हम इसको किसके समान बतलाकर समझावें।’

देवलोक, भूलोक, रसातल सुनि कवि-कुल मति डारिये।
सहज माधुरी अंग-अंग की कहि कासौं पटतरिये।।[2]

श्रीध्रुवदास ने, इस रूप के वर्णन में अपने को सर्वथा असमर्थ पाकर भी, इसकी कुछ ‘खोज’[3] बतलाने की चेष्टा की है। जिस प्रकार एक रत्ती सोने को देखकर सुमेरु पर्वत की कल्‍पना की जा सकती है, उसी प्रकार इन ‘खोजों’ के सहारे भी राधा के सहज सौन्‍दर्य को कुछ समझा जा सकता है। उन्‍होंने बतलाया है, ‘संसार में जितनी द्युति और कांतियां बखानी जाती हैं, वे सब राधा कुंवरि के अंगों को देखकर सकुचा जाती हैं। छवि उनके आगे हाथ जोड़कर खड़ी रहती है और गुण की कलायें उनके ऊपर चंवर ढ़ुराती हैं। उनको देखकर चतुराई चित्र बन जाती है और चपलता पंगु हो जाती है। मृदुला उनके अंगों का स्‍पर्श नहीं कर सकती, श्री वृषभानु कुंवरि का तन इतना अधिक सुकुमार है। जहां भानु भी श्रीराधा के चरण- नख में से निकलने वाले रूप-प्रकाश की समता नहीं कर सकता, वहां उपमा- दीपक का रखना बड़ी ना- समझदारी का काम है।' क्रमशः ... जय जय श्यामाश्याम ।।।।

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