हित सम्प्रदाय और श्रीराधा 2
राधैवेष्ट: संप्रदायैक कर्ताचार्यो राधा मंत्रद: सद्गुरुश्य।
मंत्रो राधा यस्य सर्वात्मनैवं वंदे राधा-पाद-पद्य-प्रधानम्।।
देखा जाता है कि हर संप्रदाय अपने प्रवर्तक के नाम से प्रचलित है, जैसे शांकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क-संप्रदाय आदि। श्रीराधा के द्वारा प्रवर्तित होने के कारण ही इस संप्रदाय का नाम राधा वल्लभीय संप्रदाय है।
हितप्रभु को श्रीराधा के मंत्र प्राप्त होने की बात पर आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं है। भक्तों के जीवन में इस प्रकार के अलौकिक व्यापार हर देश में होते रहे हैं। यूरोपीय मरमी संतों के चरित्रों में ‘दिव्य आदेश’ प्राप्त होने की अनेक प्रामाणिक घटनायें प्रसिद्ध हैं। विख्यात अमेरिकन दार्शनिक विलियम जेम्स ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Varieties of religious experience में मरमी संतों के इस प्रकार के अनुभवों को साधारण मनोविज्ञान से परे बतलाया है और अपने ग्रन्थ में इस प्रकार के अनेक अनुभवों का विवेचनात्मक परिचय दिया है।
हितप्रभु ने अपने जीवन के आरंभ काल में, अपने आस-पास श्री राधा के जिस रूप को प्रचलित देखा, उससे उनको मार्मिक व्यथा हुई। उनको श्रीराधा के जिस परात्पर रूप का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था, उससे यह प्रचलित रूप सर्वथा भिन्न था। उन्होंने एक श्लोक में कहा है, ‘ब्रह्मा, शिवादिक ईश्वर गण गोपीभाव का एकान्त आश्रय लेकर भी जिनके चरण-कमल-रज की एक कणिका को अपने मस्तक पर धारण करने का अधिकार प्राप्त नहीं कर पाते, वे प्रेम-सुधा -रस की निधि श्रीराधा भी काल गति से साधारण बन गई हैं, हे बलवान दैव, तुझको नमस्कार है।'
यत्पादाम्बुरु हैक रेणु, कणिकां मूर्ध्ना निधातुं नहि-
प्रापुर्ब्रह्य शिवादयोप्यधिकृतिं गोप्येक भावाश्रया:।
सापि प्रेम-सुधा-रसाभ्बुधि-निधि राधापि साधारणी-
भूता काल गति क्रमेण बलिना हे दैव, तुभ्यंनम:।।
हम देख चुके हैं कि राधा सुधा-निधि के अधिकांश श्लोकों की रचना देव बन में हुई थी। श्रीहित हरिवंश सं. 1559 से सं. 1590 तक देव बन में रहे थे। यह वह काल था जब गौड़ीय गोस्वामियों की भक्ति –रस संबंधी रचनाये अरचित थीं ओर सूर- सागर के पदों का निर्माण हो रहा था। पुष्टि मार्ग में श्रीविट्ठलनाथ गोस्वामी के गद्दी पर प्रतिष्ठित होनेके बाद श्री राधा का महत्व बढा था। श्रीवल्लभाचार्य ने सूरदासजी को श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की अनुक्रमणिका सुनाकर श्रीकृष्ण लीला का गान करने की आज्ञा दी थी। दशम स्कंध में श्रीराधा का स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं है और न श्रीवल्लभाचार्य की कोई श्रीराधा – संबंधी रचना उपलब्ध है। अत: अनुमान होता है कि सूर-सागर के श्रीराधा से संबंधित पदों की रचना श्रीविट्ठलनाथ के पदारूढ़ होने के बाद हुई है। श्रीवल्लभाचार्य का गोलोकवास सं. 1587 में हुआ था और श्रीहित हरिवंश के वृन्दावन आगमन के लगभग समकाल में, श्रीविट्ठलनाथ ने पुष्टि संप्रदाय की बागडोर संभाली थी।
श्रीहित हरिवंश के संपूर्ण जीवन का एक मात्र लक्ष्य था श्रीराधा के असाधारण- साधारण- भिन्न- स्वरूप की प्रतिष्ठा करना। इसके लिये उनके द्वारा किये गये अनेक कार्यों में एक कार्य वृन्दावन में ‘सेवाकुंज’ की स्थापना करना भी था जहां उन्होंने राधिका-पीठ स्थापति की है। इस पीठ पर ही वह चित्र विराजमान है जिसमें श्री कृष्ण श्री राधा के चरणों का संवाहन कर रहे हैं। संभवत: इस चित्र का दर्शन करके ही रसखान ने यह प्रसिद्ध सवैया कहा था;
ब्रह्म मैं ढूढ़यो पुरानन-गानन, वेद रिचा सुनि गौमुने चायन।
दैख्यौ सुन्यौ कबहूं न कहूं वह कैसे सरूप और कैसे सुभायन।।
टेरत हेरत हारि परयौ, रसखान बतयो न लोग लुगायन।
दैख्यौ दुरयौ वह कुंज-कुटीर में बैठयौ पलोटत राधिका पांयन।।
इसी प्रकार, श्रीराधावल्लभ जी के स्वरूप के साथ उन्होंने श्रीराधा की प्रतिमा न रखकर उनकी गादी स्थापित की। श्री राधा हितप्रभु की गुरु थीं और गुरु की गादी- स्थापन का विधान शास्त्रों में पाया जाता है। कहा जाता है कि हितप्रभु के बाद, वृन्दावन के अनेक मंदिरों में श्रीराधा की गादी स्थापित हो गई थी किन्तु बाद में हटा दी गई। अब भी बांके विहारी जी और राधामरणजी के प्रसिद्ध मंदिरों में श्री राधा की गादी स्थापित है। राधावल्लभीय सेवा संबंधी ग्रन्थों में गादी के निर्माण आदि की पूरी विधि दी हुई है, यह हम आगे देखेंगे।
हिताचार्य की श्रीराधा अपने अद्भुत प्रेम- रूप और गुणों के कारण श्रीकृष्णाराध्या हैं और गुरु-रूपा हैं। उनकी यह दो विशेषताऐं उनको उनके अन्य स्वरूपों से भिन्न बनाती हैं। यह दोनों विशेषताऐं नित्य प्रेम-विहार में भी सुस्पष्ट दिखलाई देती हैं और इन्हीं को हितप्रभु ने अपनी सेवा-पद्वति में प्रदर्शित किया है। क्रमशः ... जय जय श्यामाश्याम
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