Monday, 23 May 2016

हित वृन्दावन 5

हित वृन्‍दावन 5

प्रेम के सहज-विलास में पेरक प्रेम की दो परिणतियां होती हैं-वृन्‍दावन और सहचरी गण। जड़ता ओर चतनता प्रेम की दो अवस्‍थायें हैं। एक अवस्‍था में जो प्रेम जड़वत् प्रतीत होता है, वही अपनी दूसरी अवस्‍था में चेतन दिखलाई देता है। श्रीहित प्रभु ने श्री राधा के हृदय में रस के द्वारा उत्‍पन्‍न जडि़मा को अपने एक श्‍लोक में लक्षित किया है - ‘श्री राधे, हृदि ते रसेन जडि़मा ध्‍यानेअस्‍तु में गोचर:।‘ श्रीराधा के हृदय में रस-जडि़मा सदैव छाई रहती है और उस के ऊपर चेतन-प्रेम के सम्‍पूर्ण विलास होते रहते हैं। जडि़मा प्रेम की घनीभूत स्थिति है। प्रेम सघन बन कर जड़वत् प्रतीत होता है। प्रेम के नित्‍य विहार में जड़ीभूत प्रेम के आधार पर चेतन प्रेम की क्रीड़ा होती हे और उसके द्वारा एक अद्भुत प्रेम-स्‍वरूप का प्रकाश होता है। प्रेम की जड़ता वृन्‍दावन में और चपलता सहचरियों में मूर्तिमती हुई है।

यह जड़ता प्रेम की जड़ता होने के कारण, स्‍वभावत: चिन्‍मय होती है, ज्ञानमय होती है। हितप्रभु की-

बन की कुंजनि-कुंजनि डोलनि,
निकसत निपट सांकरी बीथिन परसत नांहि निचोलनि।।[1]

इन पंक्तियों का आशय स्‍पष्‍ट करते हुए सेवक जी ने कहा है - ‘श्री हरिवंश ने, उक्‍त पद में, श्‍यामश्‍यामा के उस बन विहार का वर्णन किया है जिसमें वे दोनों अत्‍यन्‍त सघन वीथियों में से इस प्रकार निकल जाते हैं कि उनके वस्‍त्रों का स्‍पर्श भी लताओं से नहीं होता और यह उस स्थिति में जब दोनों प्रेम से विह्रल होते हैं और उनको अपनी देह का भी अनुसंधान नहीं-होता। वे प्रेम-मग्‍न दशा में एक क्षण के लिेय एक दूसरे से हट कर इधर -उधर चलने लगते हैा और फिर व्‍याकुल होकर डगमगाते हुए एक दूसरे से मिल जाते हैं। उनका अत्‍यन्‍त स्‍नेह देखकर वृन्‍दावन ही उनको मार्ग देता चला जाता चलता है।'
कही नित केलि रस खेल वृन्‍दाविपिन
कुंजतैं कुंज डोलनि बखानी।
पट न परसंत, निकसंत बीथिनु सघन- प्रेम विह्रल सुनहिं देहमानी।।
मगन जित तित चलते दिन्‍ सुडगमग मिलत,
पंथ बन देत अति हेत जानी।
रसिक हित परम आनंद अवलोकितन,
सरस विस्‍तरत हरिवंश बानी।।[1]

ध्रुवदासजी ने बतलाया है-‘जिन कोमल फूली लतओं में युगल रस-विहार करते हैं, वहीं की बल्‍लरियां सकुच कर प्रेम-विवस हो जाती हैं’-

कोमल फूली लतनि में करत केलि रस मोहि।
तहँ-तहँ की बल्‍ली सबै सकुचि बिवस ह्रै जांहि॥[2]

हित प्रभु ने प्रेम-स्‍वरूप वृन्‍दावन को इस भूतल पर ही स्थित माना हे और इसके अतिरिक्‍त किसी अन्‍य गौलोकस्‍थ वृन्‍दावन का उल्‍लेख कही नहीं किया। प्रेमोपासना भाव की उपासना है और प्रकट-भाव ही उपासनीय होता है। अप्रकट-भाव को उपासना नहीं की जा सकती। प्रकट-वृन्‍दावन ही नित्‍य -वृन्‍दावन है। ध्रुवदास जी बतलाते हैं-यद्यपि वृन्‍दावन पृथवी पर स्थित है, किन्‍तु वह सबसे ऊॅचा है। जिसकी वंदना स्‍वयं विष्‍णु करते हैं, उसकी समता मैं किसके साथ करूं? ‘जो लोग वृन्‍दावन को छोड़ कर अन्‍य तीर्थो में जाते है वे विमल चिंतामणि की छोड़ कर कौड़ी के लिये ललचाते हैं।‘ (यह पांचवा भाग है , 4 पहले दिए गए है)
जय जय श्यामाश्याम । ।

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