Saturday, 21 May 2016

हित वृन्दावन 4

हित वृन्‍दावन

बन की लीला लालहिं भावै।
प्रत्र-प्रसून बीच प्रतिबिं‍बहिं नखसिख प्रिया जनावै।।
सकुचित न सकत प्रगट परिरंभन अलि-लंपट दुरि धावै।
संभ्रम देति कुलकि कल कामिनी रतिरण-कलह मचावै।।
उलटी सवै समुझि नैननि में अंजन - रेख बनावै।
(जैश्री) हित‍हरिवंश प्रीतिरीति बस सजनी श्‍याम कहावै।।

रस-लीलाओं के निर्माण में वृन्‍दावन के सहयोग के अन्‍य अनेक सुन्‍दर उदाहरण राधावल्‍लभीय रसिकों की वाणियों में देखे जा सकते हैं वास्‍तव में, वृन्‍दावन के सहयोग से ही राधा-माधव की प्रीति का विशदीकरण होता है और वे प्रेम रस का नित्‍य नूतन आस्‍वाद करने में समर्थ बनते हैं। प्रबोधानंद सरस्‍वती कृत एक शतक में वृन्‍दावन के इस कार्य के लिये कृतज्ञता प्रकाशित करते हुए श्री श्‍यमासुन्‍दर कहते है,-‘अहो मेरी और श्री राधा की जो केलि-चातुर्यधारा है, एवं हम दोनों की एक-दूसरे के प्रति जो अत्‍युच्‍च काम-तृष्‍णा निरवधि बढ़ती रहती हैं, तथा हम दोनों के प्रेम-बंधन में जो नित्‍य गाढ़ बल लगते हैं, हे रसखान वृन्‍दावन, यह सब तेरी शक्ति का ही चमत्‍कार हैं’-

श्री राधाय ममच यदहो केलिचातुर्यधारा,
यच्‍चात्‍युच्‍चैर्निर‍वधि वीरवृद्धयते कामतृष्‍ण।।
गाढ़ गाढ़ यदितिवलते कोअपि नौ प्रेमबन्‍ध,
सर्वर वृन्‍दावन -रस-खने ! शक्ति-विस्‍फूर्जितं ते।।

वृन्‍दावन को, रसिकों ने, प्रेरक प्रेम की मूर्ति माना है। प्रेरक प्रेम में भोक्‍ता -भोग्‍य की उभय रतियां एक बन कर मूर्तिमान होती हैं। अत: प्रेरक प्रेम युगल का समान पक्षपाती और पोषक होता है किन्‍तु प्रेम में भोग्‍य की स्‍वभाविक प्रधानता होती है और प्रेरक प्रेम भी भोग्‍य-प्रधान है। हितप्रभु ने, इसी लिये वृन्‍दावन को ‘राधा-विहार विपिन कहा है और अपने मन को उसी में रम जाने के लिये प्रोत्‍साहित किया है,

राधा करावचित पल्‍लववल्‍लरीके,
राधापदांकविलसन् मधुरस्‍थलीके।
राधायशोमुखरमत्‍तखगावली के,
राधा-विहार-विपिने रमतां मनो में।।[1]

उन्‍होंने श्री राधा को केवल वृन्‍दावन में ही प्रकट बतलाया है-यद् वृन्‍दावनमात्रगोचरमहो,’[2] ओर अपनी कोटि जन्‍मान्‍तरों की मधुर आशा को सर्वत्र से हटा कर वृन्‍दावन-भूमि पर स्‍थापित किया है-

किंवा नस्‍तै: सुशास्‍त्रै: किमथ तदुदितैर्वर्त्‍मभि: सद्गृहीतै।
यत्रास्ति प्रेममूर्ते र्नहि महिमसुधा नापि भावस्‍तदीय:।।
किंवा वैकुण्‍ठलक्ष्‍म्‍याप्‍यहह परमया यत्र में नास्ति राधा।
किंत्‍वाशाप्‍यस्‍तु वृन्‍दावनभुवि मधुराकोटिजन्‍मान्‍तरेअपि।।

रस-रूपा श्री राधा का यह अद्भुत रस-धाम उन्‍हीं की कृपा से उपासक के दृष्टि -पथ में आता है। हिताचार्य ने अपने एक पद में लीलागान से पूर्व वृन्‍दावन को प्रणाम किया है और श्री राधा की कृपा के बिना उसको सबके मनों के लिये अगम्‍य बताया है।

प्रथम यथामति प्रणऊँ वृन्‍दावन अतिरम्‍य।
श्री राधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम्‍य।।[1]

श्री राधा और वृन्‍दावन का इस प्रकार का सम्‍बन्‍ध देख कर हितप्रभु के शिष्‍य श्री प्रबोधानंद सरस्‍वती ने अपने शतक में इन दोनों की प्राप्ति को एक दूसरे के आश्रित बताया है। वे कहते हैा-‘जब तक श्री राधा के पद-नख-मणि की चन्द्रिका का आविर्भाव नहीं होता, तब तक मन-चकोरी को मोद प्राप्‍त नहीं होता, और जब तक वृन्‍दावन भूमि में गाढ़-निष्‍ठा नहीं होती तब तक श्री राधा-चरणों की करूणा का पूर्ण उदय नहीं होता।'

यावद्राधा पदनखमणी चन्द्रिका नाविरास्‍ते,
तावद् वृन्‍दावन भुवि मुद नैति चेतश्‍चकोरी।
तावद् वृन्‍दावन भुवि भवेन्‍नापि निष्‍ठा गरिष्‍ठा,
तावदाधा चरणकरूणा नैव ताद्दश्‍युदेति।।

जय जय श्यामाश्याम ।।। क्रमशः ।।

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