Tuesday, 17 May 2016

हित युगल

सिद्धान्त
हित-युगल

उज्‍जवल- रस की उपासना के लिये युगल का होना आवश्‍यक है। भरत ने प्रमदा युक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है- ‘पुरुष:प्रमदा-युक्त: श्रृंगार रस की उपासना अपने देश में प्राचनी काल से चली आ रही है। पुराणों में तथा अन्‍यत्र दृष्टि में इसकी प्राचीनता सिद्ध हो चुकी है।

सोलहवीं शती में उत्‍पन्न होने वाले आचार्यां और महात्‍माओं ने इसको बहुत पल्लिवत किया और उसी समय इस उपासना की परिपाटियां बनीं। सभी रस- उपासकों के उपास्‍य राधाकृष्‍णात्‍म युगल हैं, किन्‍तु राधाकृष्‍ण के स्‍वरूप और परस्‍पर संबध को लेकर इन लोगों में काफी मतभेद है। यह मतभेद मूलत: प्रत्‍येक आचार्य की भिन्न प्रेस- रस संबधिनि दृष्टि के ऊपर आधारित है।

राधावल्‍लभीय प्रेम-सिद्धान्‍त में युगल की स्थिति का संक्षिप्‍त परिचय पीछे दिया जा चुका है। वे प्रेम के दो खिलौने हैं जो प्रेम का ही खेल खेल- रहे हैं- ‘प्रेम के खिलौना दोऊ खेलत हैं प्रेम खेल’। परात्‍पर ‘हित’ और प्रेम और सान्‍दर्य दो रूपों में नित्‍य व्‍यक्त रहकर अनाघनंत प्रेम- क्रीडा में प्रवृत्त है। प्रेम और रूप ही हित के सहज युगल हैं। इन दोनों में भोक्ता- भोग्‍य का संबंध है, प्रेम भोक्ता है और रूप भोग्‍य। प्रेम की मूर्ति श्‍याम सुन्‍दर हैं और सौन्‍दर्य की श्री राधा। जिस प्रकार प्रेम और सौन्‍दर्य अपनी उज्‍वलतम परिणति में एक- दूसरे से पृथक् नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार राधा- श्‍याम सुंदर को परस्‍पर एक क्षण का वियोग भी असह्य है।

प्रेम सदैव प्रेम- तृषा से पूर्ण होता है। प्रेम को प्रेम की प्‍यास सदैव लगी होती है। श्‍यामा- श्‍याम में प्रेम की स्थिति समान है, अत: इनकी प्रेम- तृषा भी समान है। ‘यह दोनों परस्‍पर अंशों पर भुजा रखे हुए एक-दूसरे के मुख- चन्‍द्र को देखते रहते हैं और इनके नेत्र वृषित चकोरों की भांति मत्त बनकर रस-पान करते रहते हैं।’

अंसनि पर भुज दिये विलोकत इंदु-वदन विवि ओर।
करत पान रस मत्त परस्‍पर लोचन तृषित चकोर।।[1]

इसका अर्थ यह हुआ कि यह दोनों ही चन्‍द्र हैं और दोनों तृषित चकोर हैं। दोनों ओर चन्‍द्र ही चकोर बन कर चन्‍द्र का रसपान कर रहा है। जल ही प्‍यास बनकर जल को पी रहा है। प्‍सासे पानी की प्‍यास को बुझाने का कोई उपाय नहीं रह जाता। पानी को यदि प्‍यास लग आवे तो निकट- स्थित कुए से भी क्‍या लाभ ? ‘पानी लागै प्‍यास जो कहा करैं ढिंग कूप ?’ प्रेम की तृषा रूप- जल से सिंचित होकर शान्‍त होती है, किन्‍तु यदि रूप- दर्शन से वह बढ़ने लगे, तो उसकी निवृत्ति का कोई साधन नहीं रहता। राधा- श्‍याम- सुन्‍दर की प्रेम तृषा परस्‍पर रूप-दर्शन से अनंत और नित्‍य वर्धमान बनी हुई है।
इस समान और अंत प्रेम- तृषा का प्रभाव युगल के स्‍वरूप संबंध और क्रीडा पर अद्भुत पड़ा है। इसी के कारण उनके तन- मन घुल- मिलकर एक बने हैं और इसी के विवश बनकर वे प्रेम का एक रस उपभोग करने में समर्थ बने हैं। उनकी रसिकता का आधार भी यह तृषा ही है। रस- तृषित ही रसिक कहलाता है। रस- तृषा जितनी तीव्र होती है, रसिकता भी उतनी ही परिष्‍कृत और गंभीर होती है। श्‍यामा-श्‍यामा-श्‍यामा, इसीलिए, रसिक शिरोम‍णि हैं कि वे एक-दूसरे के प्रेम-रूप का आस्‍वाद अनंत तृषा लेकर करते हैं। युगल के ऊपर उनकी अनंत प्रेम- तृषा के प्रभाव का वर्णन करते हुए श्री ध्रुवदास कहते हैं, ‘यह दोनों एक मन और एक हृदय हैं और इनको एक ही बात सुहाती है। इनकी एक ही वय है, एक से भूषण- पट हैं और इनके अंगों में एक-सी छबीली छटा सुशोभित है। यह दोनों रूप के रंग में ही भीग रहे हैं और दोनों ने अपने नेत्रों को परस्‍पर चकोर बना रखा है। यह दानों एक-दूसरेके संग को इस प्रकार चाहते हैं जैसे मीन-जल के संग को चाहता है। इनको देखकर सखी गण परस्‍पर यह कहती रहती हैं कि रसिक- शिरोमणि युगल के बिना और कौन प्रेम- ब्रत का एक रस निर्वाह कर सकता है।

हितध्रु रसिक सिरोमणि युगल बिनु,
आली, को निवाहै एक रस प्रेम-पान कौं।[1]

वृन्‍दावन- रस के रसिकों ने इसीलिए इनको सदैव साथ ही चित्रित किया है। साथ रहने से प्रेम और रूप एक दूसरे में प्रतिविम्बित हो उठते हैं और रूपमय प्रेम तथा प्रेम मय रूप की सृष्टि हो जाती है। श्‍याम सुन्‍दर रूपमय प्रेम हैं, और श्री राधा प्रेम मय रूप हैं। प्रेम में रूप ओत प्रोत है, और रूप में प्रेम। श्री राधा और श्‍याम सुन्‍दर इस प्रकार प्रेमालिंगन में आवद्व हैं कि उनमें श्‍याम और गौर का विवेक नहीं किया जा सकता, ‘रति रस- रंग साने एसे अंग लपटाने, परत न सुधि कछु को श्‍याम गौर री’। इनको देखकर सखी गण यह विचार करती रहती हैं कि कौनसा प्रेम और कौन-सा रूप एक स्‍थान में एकत्रित हुआ है, ‘हितध्रुव हेरि-हेरि करत विचार सखी, कौन प्रेम, कौन रूप जुरयौ एक ठौर री,।

नित्‍य- वर्धमान, समान प्रेम- तृषा ने यद्यपि युगल को एक दूसरे में ओत- प्रोत बना दिया है किन्‍तु प्रेम- क्रीडा के लिए दोनों का स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्तित्‍व होना आवश्‍यक है। राधा-श्‍यामसुन्‍दर एक-प्राण, एक-मन, एक-शील और एक-स्‍वभाव होते हुए भी अपने स्‍वरूपों में सर्वथा स्‍वतन्‍त्र हैं। युगल की परस्‍पर विलक्षणता को स्‍पष्ट करते हुए श्री हित प्रभु कहते हैं- ‘इनमें से एक छवि तो सुवर्ण के चंपक जैसी है और दूसरा नील मेघ के समान श्‍यामल है। एक काम के द्वारा चंचल बन रहा है और दूसरे ने बाह्य प्रतिकूलता धारण कर रखी है। एक मान की अनेक भंगियों से मंडित है और दूसरा रस पूर्ण चाटुता कर रहा है। निकुंज सी सीमा में क्रीडा करते हुए इस महा मोहन युगल को मैं देख पाऊंगा?'
एकं कांचनचंपकच्‍छवि परं नीलाम्‍बुदश्‍यामलं,
कंदर्पोत्तरलं तथैकमपरं नैवानुकूलं बहि:।
किंचैकं बहुमानभंगि रसवच्‍चाटूनि कुर्वत्‍परं,
वीक्षे क्रीडानिकुंजसीम्नि तदहो द्वन्‍द्वं महामोहनम्।[1]

ही प्रेम के दो ‘खिलौने’ होते हुए भी युगल के प्रेम- स्‍वरूपों में भिन्नता है। श्‍याम सुन्‍दर प्रेमी हैं और स्‍वभावत: उनका प्रेम आवेश युक्त है। उनकी प्रीति वेगवती जल धारा की भांति अपने किनारों को तोड़ती हुई अपने लक्ष्‍य की ओर धावित होती रहती है। श्रीराधा प्रेम पात्र हैं, अत: उनका प्रेम उस गंभीर सागर की भांति है जो अपनी लहरों को अपने अंदर समा लेता है। उनके प्रेम में वाणी को प्रवेश नहीं होता। यह गंभीर सागर यदि अपनी मर्यादा छोड़कर उमड़ पड़े तो इसको रोकने की क्षमता किस में है?

यद्यपि प्‍यारे पीय कौं रहत है प्रेम अवेस।
कुंवरि प्रेम गंभीर तहां नाहिन वचन प्रवेश।।
प्रिया- प्रेम सागर अमल लहरिनु लेत समाय।
उमड़ै जो मर्जाद तजि कापै रौक्‍यौ जाय।।
--- रसधा उरउन्मादिनी रसप्रवाहिनी दिव्य वेणु अवतार के सादर चरण वन्दनाश्रय आतुर तृषित ।।।

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