Monday, 30 May 2016

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा भाग 5

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा भाग 5

क्रमशः ...
श्री राधा के गौर वर्ण का प्रभाव केवल ब्रजवासियों के हृदयों पर ही नहीं पड़ता, वे जिसे फुलवारी के पास एक क्षण के लिये खड़ी हो जाती हैं, वहां के पत्र और फूल पीत वर्ण के हो जाते हैं।

नैकु होत ठाड़ी कुंवरि जिहिं फुलवारी मांहि।
पत्र-फूल तहां के सबै पीत बरन ह्रै जाहिं।।

इसलिये, ध्रुवदासजी ने श्री राधा के रूप की सबसे बड़ी अद्भुतता यह बतलाई है कि इसको जो देख पाता है, वह भी रूपवान हो जाता है।

याकौ रूप जु देखै आई, सोऊ रुपवंत ह्रै जाई।

रूप की यह परात्‍पर सीमा, मृदुता, दयालुता और कृपालुता की भी राशि है। इनको कभी भूलकर भी क्रोध नहीं आता और इनके हृदय में तथा मुख पर सदैव हास छाया रहता है। प्‍यारे श्‍यामसुन्‍दर की यह सुकुमारी प्रिया जिनकी उपास्‍य हैं वे अनेक वार धन्‍य हैं। इस उपासना के सुख को छोड़कर अन्‍य संपूर्ण सुख दुख रूप हैं।’

सहज सुभाव परयौ नवल किशोरी जू कौ,
मृदुता, दयालुता, कृपालुता कीरासिहै।
नैकहूं न रिस कहूं भूले हू न होत सखि,
रहत प्रसन्न सदा हियेमुख हासि है।
ऐसी सुकुमारी प्‍यारे लाल जू की प्रान प्‍यारी,
धन्‍य, धन्‍य, धन्‍य तेई जिनके उपासि है।
हित ध्रुव ओर सुख जहां लगि देखियतु,
सुनियतु जहां लागि सबै दुख पासि है।

एक श्‍लोक में श्रीराधा को ‘शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा’ कहा गया है; और इस के आधार पर कुछ लोग हि‍त प्रभु को शक्ति-रूपा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्‍तु उक्त श्‍लोक को ध्‍यान पूर्वक देखने से मालूम होता है कि इस में हित प्रभु ने श्रीराधा संबंधी सब प्रचलित मान्‍यताओं को एक स्‍थान में एकत्रित कर दिया है और साथ में अपना दृष्टिकोण भी दे दिया है। वह श्‍लोक इस प्रकार है।

प्रेम्‍ण: सन्‍मधुरौज्‍ज्‍वलस्‍य हृदयं, श्रृंगार लीला कला-
वैचित्री परमावधि, भंगवत: पूज्‍यैवकापीशता।
ईशानी च शची, महा सुख तनु:, शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा,
श्री वृन्‍दावननाथ पट्ट महिषी राधैव सेव्‍या मम।।[1]

इस श्‍लोक में, हितप्रभु ने, ‘मधुरोज्जवल प्रेम की हृदय रूपा, श्रृंगाल-लीला- कला- वैचित्री की परमावधि, श्री कृष्‍ण की कोई अनिर्वचनीय आज्ञाकर्त्री, ईशानी, शची, महा सुख रूप शरीर वाली, स्‍वतन्‍त्रता परा शक्ति और वृन्‍दावन नाथ की पट्ट महिषी श्रीराधा’ को ही अपनी सेव्‍या बतलाया है। हितप्रभु के सिद्धान्‍त से परिचित कोई भी व्‍यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे श्रीराधा की उपसाना उनके ईशानी, शची या शक्ति के रूपों में करते हैं किन्‍तु इन सब रूपों वाली श्री राधा ही उनकी इष्ट हैं, इसमें संदेह नहीं है।

हित प्रभु श्‍यामाश्‍याम के बीच में स्‍थूल विरह नहीं मानते किन्‍तु राधा सुधा निधि में एक श्‍लोक ऐसा भी मिलता है जिसमें उन्‍होंने स्‍थूल वियोगवती श्री राधा की वंदना की है।[2]

इस श्‍लोक को देखकर भी लोगों को भ्रम होता है और कुछ लोग तो इस प्रकार के श्‍लोकों के आधार पर राधा-सुधा- निधि को ही श्रीहित हरिवंश की रचना स्‍वीकार नहीं करते। किन्‍तु हितप्रभु के तीस-चालीस वर्ष बाद ही होने वाले श्रीध्रुवदास ने इस प्रकार की उक्तियों के संबंध में अपने ‘सिद्धान्‍त-विचार’ में कहा है, ‘जो कोऊ कहै कि मान-विरह महा पुरुषन गायो है, सो सदाचार के लिये। औरनि कौं समुझाइवे कौं कहयौ है। पहिले स्‍थूल-प्रेम समुझै तब आगे चलै। जैसे, श्रीभागवत की बानी। पहिले नवधा भक्ति करै तब प्रेम लच्‍छना आवै। अरु महा पुरुषनि अनेक भांति के रस कहे हैं, एपै इतनौ समुझनौ के उनको हियौ कहां ठहरायौ है, सोई गहनौ ... क्रमशः ...
जयजय श्यामाश्याम ।।।

Sunday, 29 May 2016

पुष्पों की पायल , आँचल सखी लीला भाव

रात्री का समय,एक सखीजु कुंज मे पुष्प गूथ रही है.....दूसरी सखी आकर पूछती है,सखीजु ये क्या बना रही हो......
सखीजु बोली...सखी श्रीजु के रात्री श्रृंगार के लिए पुष्पो की पायल बना रही हू....
आहा,पायल सखीजु....एक बन गयी क्या?
न सखी अभी एक भी न बनी....जो आप कहो तो एक मै बना दू सखीजु....
सखीजु,हा क्यु नही....शीघ्रता कर,बना पायल।
चमेली के पुष्पो की एक लडी पिरोकर नीचे गोल गोल घुमाकर पायल बनाई गयी,हर घुमाव के बीच एक छोटा सा लाल रंग का जाने कौन सा पुष्प पिरोया गया।
अन्ततः पायल तैय्यार हुई और दोनो सखिया इसे लेकर श्रीजु के पास चली।
वहा पहुचकर क्या देखती है....आह.....राधे.....
राधेजु खडी हुई है,उन्होने बहुत हल्के जामनी रंग की साडी पहन रक्खी....वह साडी ऐसी की कंधे पर से फिसल नीचे आ रही....सर पर आँचल नही आज,आँचल का नीचला छोर जमीन पर पडा है.....वह वस्त्र इतना झीना की सब अंग......
सखियो ने चमेली के पुष्पो से क्या अद्भुद श्रृंगार किया हुआ है राधेजु का...सब गहने पुष्पो के ही है।
मांग मे टीका,कानो मे कांधे को छूती पुष्पो की लडिया....गले मे एक छोटी वक्षस्थल तक व एक नितंबो से नीचे तक आती पुष्पमाल....
यू ही पुष्पो से निर्मित सुंदर कमरबंद.....
सखियो ने बहुत हल्के से बल डालकर वेणी रचना की...बस कुछ खुली सी ही है।
राधे स्वयं से ही लजायी सी ,नयन झुकाए खडी है....अधरो पर वो मोहनी सी टेढी सी मुस्कान है.....
दोनो सखिया तो यू देखती ही जा रही....तभी एक सखी राधे की साडी को नीचे से कुछ उठाकर पायल बाँधने को कहती है।
वो सुन्दर कोमल चरण,उनमे चारो ओर आलता लगा है.....यू पूर्ण चरण दर्शन,वो आभा....सखी पायल बांध देती है।
अब सखिया राधे को लेकर रसराज ,रसिकशेखर के पास ले चली....राधे को उनके प्राणो को सौप सब चली गयी।
यहा की भूमि पर हर ओर हरी हरी कोमल घास....सखियो ने इसी पर पुष्पो से लगभग एक हाथ ऊँची शैय्या का निर्माण किया है,व एक ओर कुछ अधिक पुष्प लगा सिरहाना बना दिया है.....
ये कुछ अंधकारपूर्ण रात्री,चंद्रमा की चांदनी न के बराबर ही है.....
किंतु कुंज का तो दृश्य ही कुछ ओर है.....
यहाँ तो दो प्रकाश पुंजो से ये निकुंज प्रकाशवान है.....
ऐसा लग रहा है मानो राधे के प्रत्येक अंग का प्रत्येक अणु ही चंद्र्मा है और इस प्रकार करोडो करोडो चंद्रमाओ ने मिलकर राधेजु की आकृति धारण कर ली हो....यह कुछ ऐसे है,की बीच मे तो विशाल विशाल शीतल ज्योतिर्पुंज है जिसके चारो ओर किरणो कि रूप मे ज्योति फैली हुई है.....दोनो युगल इसी भाँति कुंज मे प्रेमरस मे निमग्न होने को आतुर है.....दोनो इस प्रकार शुशोभित है मानो रात्री मे किसी पुष्प पर जुगनु,मानो जल मे दिखते चंद्र देव की छबि......किंतु ये तो अति अति न्यूनता मे ही कहा गया(ठीक ठीक उपमा नही)......
अब श्यामसुन्दर ने राधे का दायाँ कर व बायाँ कंधा पकड उन्हे शैय्या पर बैठाया...
राधे नववधू सी सकुचायी सी नैनो को झुकाये बैठ जाती है.....
श्यामसुन्दर इनके मुख को अपने दोनो करो मे ले कुछ उपर को किये,तो लगा मानो किसी नीले कमल ने चंद्रमा को ही पकड रक्खा है,कौन सी कांति किसकी है कोई भेद नही.....श्यामसुन्दर इनके कुछ खुले केशो को पूर्ण मुक्त कर देते है.....वो श्यामवर्ण केश फैल जाते है चंद्रमा के चारो ओर.....कुछ अलके झूमने लगती है कपोलो पर....तब ये ही.....यही एक ओर एक पान रखा है,सखियो ने शरारत करके एक ही पान रख छोडा आज....
रसराज कुछ दुविधा मे राधे को निहारते है़ ,राधे भी नयनो की दायी कोर से तिरछी चितवन कर उनकी ओर दृष्टि करती है......
ये देख रसराज मुस्कुराकर,परम आनंदित होकर पान अपने मुख मे रख लेते है.....राधे अपना मुखचन्द्र उठाकर प्रश्नवाचक सी मुद्रा मे उनकी ओर देखती है...
किंतु तभी वो इन रसिकशिरोमनि की मुस्कुराहट से इनके अनुरोध को जान लेती है....
ये रसराज,रसलम्पट राधे की ओर झुक अपने अधरामृत से सिक्त पान को अपने अधरो से राधे के अधरो को मिला पान कराते है.....राधे कुछ पीछे हटती है......
इसी सब कौतुहल मे राधे की माला टूट गयी है,परंतु अब दोनो ही इस प्रेम रस मे डूबते जा रहे....अनेकानेक चेष्टाओ से.....और दो ज्योतिर्पुंज एक होते जा रहे है.....

Saturday, 28 May 2016

रसब्रह्म

रसब्रह्म

नवललितवयस्कौ नव्यलावण्यपुन्जौ
नवरसचलचित्तौ नूतनप्रेमवृत्तौ।
नवनिधुवनलीलाकौतुकेनातिलोलौ
स्मर निभृतनिकुन्जे राधिकाकृष्णचन्द्रौ।।
द्रुतकनकसुगौरस्निग्धमेघौघनील-
च्छविभिरखिलवृन्दारण्यमुद्भासयन्तौ।
मृदुलनवदुकूले नीलपीते दधानौ
स्मर निभृतनिकुन्जे राधिकाकृष्णचन्द्रौ।।

श्रुतियों में विभिन्न नामों से परात्पर ब्रह्म-तत्त्व का वर्णन किया गया है और प्रसंगानुसार वह सभी सत्य है तथा सभी में एक पूर्ण सामञ्जस्य है। अन्न, प्राण, मन, विज्ञान[1] आदि विभिन्न नामों का निर्देश करने के पश्चात श्रुति ने ‘आनन्द’ के नाम से ब्रह्म का वर्णन किया—

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्, आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।

अर्थात यह निश्चयपूर्वक जान लिया कि ‘आनन्द’ ही ब्रह्म है, आनन्दस्वरूप परात्पर तत्त्व से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्दस्वरूप में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

श्रुतियो ने विभिन्न प्रकार से ‘आनन्दब्रह्म’ का सविस्तार वर्णन किया। परंतु परात्पर तत्त्व के स्वरूप-निर्देश की चर्चा अभी अधूरी ही रह गयी। अतएव श्रुति ने परात्पर तत्त्व की रसस्वरूपता या ‘रसब्रह्म’ की रहस्यमयी चर्चा करते हुए संक्षेप से कहा—

यद्वै तत् सुकृतम्। रसो वै सः, रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।[1]
‘जो स्वयं कर्ता-स्वयंरूप तत्त्व है, वही रस है - पूर्ण रसस्वरूप है। उस रसस्वरूप को प्राप्त करके ही जीव आनन्द युक्त होता है।’

जो ‘आनन्दब्रह्म’ जगत् का कारण है, यह ‘रसब्रह्म’ ही उसका मूल है। यह ‘रसब्रह्म’ ही ‘लीलापुरुषोत्तम’ और ‘रसिक ब्रह्म’ है। जैसे सविशेष धूप ही निर्विशेष या अमूर्त सुगन्ध का विस्तार करता है, वैसे ही एक सविशेष रसतत्त्व के अवलम्बन से ही ‘निर्विशेष आनन्त-तत्त्व’ का प्रकाश होता है। अतएव जैसे धूप ही सौरभ की प्रतिष्ठा है, वैसे ही ‘रस’ ही ‘आनन्द’ की प्रतिष्ठा है। सविशेष रसब्रह्म में ही निर्विशेष आनन्दब्रह्म प्रतिष्ठित है। रसरूप भगवान श्रीकृष्ण ने इसी से ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ की घोषणा करके इस सत्य सिद्धान्त को स्पष्ट किया है।

रस की उपलब्धि में भाव आवश्यकता
इस ‘रस’ की उपलब्धि ‘भाव’ के बिना नहीं होती। ‘भावुक’ हुए बिना ‘रसिक’ नहीं हुआ जाता। ‘भावग्राह्य’ या भावसाध्य रस का प्रकाशन - आस्वादन भाव के बिना सम्भव नहीं। अतएव जहाँ ‘रस’ का प्रकाश है, वहाँ भाव की विद्यमानता है ही। इसी से प्रेमरसास्वादनकारी ज्ञानी पुरुषों ने यह साक्षात्कार किया है कि सृष्टि के मूल में - प्रकाश और प्रलय सभी अवस्थाओं में - भावपरिरम्भित, भाव के द्वारा आलिंगित रस के उत्स - मूल स्रोत से ही रसानन्द की नित्य धारा प्रवाहित है।

इस प्रकार जिस रस और भाव की लीला से ही - उनकी नृत्युभंगिमा से ही समस्त विश्व का विविध विलासवैचित्र्य सतत विकसित, अनुप्राणित और आवर्तित है, सभी रसों और भावों का जो मूल आत्मा और प्राण है, वह एक महाभावपरिरम्भित रसराज या आनन्दरस-विलास-विलसित महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से समन्वित श्रीकृष्ण ही (दूसरे शब्दों में अभिन्नतत्त्व श्रीराधा-माधव ही) समस्त शास्त्रों के तथा महामनीषियों के द्वारा नित्य अन्वेषणीय परात्पर परिपूर्ण तत्व हैं। 
एक परम् दिव्यतम सन्त !!
जय जय श्यामाश्याम !!!

भाव का अभिप्राय - भक्ति

भाव का अभिप्राय - भक्ति
‘भाव’ शब्द का अभिप्राय ‘भक्ति’ से है। भगवान भावसाध्य - भावग्राह्य हैं, इसका अर्थ है - वे भक्ति से प्राप्त होते हैं। भगवान ने कहा है - मैं एकमात्र अनन्य भक्ति से ही ग्राह्य हूँ - ‘भक्त्याहमेकया ग्राह्यः’। यही परमानन्द का रसास्वादन है। भक्तिशून्य या भावरहित होकर कोई भी (किसी भी विषय से किसी भी परिस्थिति में) इस आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता और समस्त भक्ति की मूल आकर हैं - श्रीराधा। जैसे समूर्त रसराज श्रीकृष्ण से ही समस्त रसों का आविर्भाव हुआ है, वैसे ही मूर्तिमती महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से ही अमूर्त और मूर्त सभी भावों का - विभिन्न भक्ति-भावों का, भक्ति-स्वरूपों का विस्तार हुआ है और भावानुसार भक्ति-स्वरूपों में से स्वरूपानुसार ही रसतत्त्व की उपलब्धि होती है।
जैसे एक ही प्रकाश-ज्योति के नीले, पीले, लाल, हरे आदि विविध वर्णों के स्फटिकों पर पड़ने से विविध वर्णविशेष दिखायी देते हैं, वैसे ही भक्ति के रूप में प्रकट श्रीराधा ही अमूर्त भावविशेष के रूप में दास्य, सख्य, वात्सल्यादि भाव वाले विभिन्न भक्तों में उसी रूप में प्रकट होकर उसी के अनुसार उसी के उपयोगी रसतत्त्व को प्राप्त कराती है। पटरानी-रूप में, लक्ष्मी आदि के रूप में, गोपीरूप में जितनी भी भगवान की कान्ता देवियाँ हैं, वे सभी श्रीराधा की समूर्त अवस्थाविशेष हैं। जिस अवस्था में महाभावरूपा स्वयं राधा और रसराज श्रीकृष्ण प्रेमविलास-वारिधि में लीलायमान हैं, जहाँ ‘रमण’ और ‘रमणी’ की भेदबुद्धि की भी कल्पना नहीं रह जाती, वह सम्पूर्ण रस-भावाद्वैत ही विशुद्ध प्रेमविलास की असीम सीमा है— निरवधि अवधि है। श्रद्धेय पौद्दार भाई जी । जय जय श्यामाश्याम ।।

Friday, 27 May 2016

हित वृन्‍दावन 6

हित वृन्‍दावन 6

यद्यपि राजत अवनि पर सबते ऊँची आहि।
ताकी सम कहिये कहा श्रीपति बंदत ताहि।।
तजि के वृन्‍दा विपिन कौं और तीर्थ ले जात।
छांडि विमल चिंतामणिहि कौडी कौं ललचात।।

प्रश्‍न यह होता है कि यदि भूतल-स्थित प्रगट -वृन्‍दावन ही नित्‍य - वृन्‍दावन है, तो उसकी इस प्रकार प्रतीति हर एक को क्‍यों नहीं होती ? श्री ध्रुवदास जी उत्‍तर देते है :-

‘इसमें दोष दृष्टि का है, द्दश्‍य कहा नहीं है। वृंदावन अपने अनंत प्रेम-वैभव को लेकर नित्‍य प्रकाशित है आंख रते हुए न दीखना माया का रूप हे। द्दश्‍यमान रज्‍जु में सर्प की मिथ्‍या प्रतीति को ही माया कहते हेा। सारे संसार को मोह-गर्त में डालने वाली यह श्रीकृष्‍ण की माया ही है, जिसके कारण वृंदावन-रूपी रत्‍न को अपने बीच में पाकर भी हम उसको पहिचान नहीं पाते और उसका निरादर कर देते है’-

प्रकट जगत में जगमगै वृंदा विपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं यहा माया कौ रूप।।
पाइ रतन चीह्रौ नहीं दीन्‍हौं करतें डार।
यह माया श्रीकृष्‍ण की मोह्यौ सब संसार।।[1]

जिन रसिक उपासकों की दृष्टि सहज प्रेम के उन्‍मेष से निर्मल बनी है, उनको भूतल -स्थिर वृन्‍दावन के खग, मृग, वन-बेली प्रेममय दिखलाई दिये हैं और उन्‍होनें इन सबका दुलार अपनी रचनाओं में किया है। वृंदावन के वृक्षों का गान करते हुए व्‍यासजी कहते हैं-‘मुझको वृन्‍दावन के वृक्ष प्‍यारे लगते है। जिनको देखकर सम्‍पूर्ण कामनायें विलीन हो जाती हैं वे राधा-मोहन इनके नीचे विहार करते हैं। यह प्रेमामृत से सींचे हुए हैं, इसीलिये इनके नीचे माया-काल प्रवेश नहीं कर पाते। इन वृक्षों की एक शाखा तोड़ने से श्री हरि को कोटि गौ-ब्रह्मणों की हत्‍या से अधिक कष्‍ट होता है। रसिकों को यह सब कल्‍पवृक्ष मालूम होते हैं और विमुखों को ढ़ाक -पिलूख दिखलाई देते हैं। इनका भजन जिह्रा के सम्‍पूर्ण स्‍वादों को छोड़ कर किया जाता है। गोपियों ने गृहादिक की सुख-संपत्ति को छोड़ कर इनका भजन किया था। यही रस पान करके परीक्षित ने भोजन छोड़ दिया था और शुक-मुनि को अपने ब्रह्मज्ञान से असंतोष हो गया था। मैंने पपीहा बन कर वृन्‍दावन घन का सेवन किया है और मेरे दुख के सर-सरिता सूख गये हैं। 'प्‍यारे वृन्‍दावन के रूख।
जिनितर राधा -मोहन विहरत देखत भाजत भूख।।
माया काल न व्‍यापै जिनितर सींचे प्रेम-पियूख।
कोटि गाय बांभन हत शाखा तोरत हरिहिं विदूख।।
रसिकनि पारिजात सूझत हैं विमुखनि ढ़ाक-पिलूख।
जो भजिये तौ तजिये पान मिठाई मेवा ऊख।।
जिनि के रस-बस गोपिनु छांडे सुख-सम्‍पति गृहतूख।
मणि कंचन मय कुंज विराजत रंध्रनि चन्‍द्र मयूख।।
जिहिं रस भोजन तज्‍यौ परीक्षित उपज्‍यौ शुकहिं अतूख।
व्‍यास पपीहा बन-घन सेयौ दुख-सलिता-सर सूख।।[1]

रसलीला का आधार होने के कारण वृन्‍दावन को रसोपासना का भी स्‍वाभाविक आधार माना गया है। उपासना की दृष्टि से वह रस का सहज धर्म है। आधार का काम धारण करना है और जो धारण करता है। वह धर्म कहलता है, ‘धारणात् धर्ममित्‍याहु:।‘ हितप्रभु के निज-धर्म का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं-‘वहां वृन्‍दावन की स्थिति है, जहां प्रेम का सागर बहता है'

अब निजु धर्म आपुनौं कहत, तहां नित्‍य वृंदावन रहत।
बहत प्रेम सागर जहां।।[2]

वृन्‍दावन की स्थिति के आधार पर ही प्रेम-सागर बहता है। वृन्‍दावन ने ही प्रेम के सागर को धारण कर रखा है और धारण करने के काराण ही धर्म है। श्री वृन्‍दावन किंवा प्रेम-धर्म का साधन नवधा-भक्ति है। ‘साधन सकल भक्ति जा तनौ।' जयजय श्यामाश्याम । क्रमशः ...

हित सम्प्रदाय और श्री राधा 4

हित सम्प्रदाय और श्री राधा 4

जहांलगि दुति अरु कांति बखनी, कुंवरि अंग देखत सकुचानी।
छवि ठाड़ी आगे कर जोरै, गुन की मलाचौंर सिर ढ़ोरै।।
चित्र भई तेहि ठां चतुराईै,पंग भई चितवत चपलाई।
छवै न सकत अंगनिमृदुताई,अति सुकुंवार कुंवरि तन माई।।
यातै उमा कछु उर आई, बात खोज बिनु जात न पाई।
रति इक हेम छविहि उर आनै, ताहि समुझ्रिा सुमेर पहिचानै।।
एसौ रूप प्रकास तहां, नख की सम नहिं भान।
तेहि ठां उमपा-दीपकौ, धरिबौ बड़ौ अयान।।[1]

श्री राधा के अद्भुत रूप- वैभव को समझने में सब से बड़े सहायक श्‍याम सुन्‍दर हैं। ‘वे रस के सागर हैं और अपने प्रताप, रूप, गुण, वय और वल के लिये प्रसिद्ध हैं। किन्‍तु वे श्रीराधा के किंचित् भ्रम-विलास से नाद-मोहित मृग के समान विथकित हो जाते हैं।'

(जय श्री) हित हरि वंश प्रताप, रूप, गुण, वय, बल श्‍याम उजागर।
जाकी भ्रू-विलास बस पशु इव दिन विथकित रस-सागर।।[2]

श्री स‍हचरि सुख कहते हैं ‘जो प्रजांगनाऐं में अपने रूप- प्रकाश से चन्‍द्र को पराजित करती हैं, वे नंदकुमार को देखकर चौधिया जाती हैं। श्रीहरि श्‍याम तो तभी दीखते हैं जब वे कीर्ति- सुता[3] के निकट आते हैं।'
चक चौधति लखि कुंवर कौं ससि जीतत जे वाम।
आवत ढि़ंग कीरति सुता तबही हरि दीसत स्‍याम।।

इतना ही नहीं, ‘नंद किशोर ने सब ब्रज वासियों के हृदयों को अपने श्‍याम रंग से रंग दिया था। श्रीराधा ने अपने गौर वर्ण से उन सबको गौर बना दिया, यह देखकर नंद-नंदन का सारा रूप- गर्व गल गया। जिस प्रकार सोने की परख कसोटी पर कसे जाने पर होती है, उसी प्रकार रूप की परख रूपवान के हृदय में उसकी लकीर खिंच जाने पर होती है।'

रचे करेजा सांबरे सब व्रज नंद किशोर।
हिये गौर राधा किये तब बिक गई सबै मरोर।।
कनक कसौटी पर कसत जब होत बरन कौ ठीक।
परख रूप की खिंचत है हो, रूपनि हीये लीक।।[1]

श्री राधा के गौर वर्ण का प्रभाव केवल ब्रजवासियों के हृदयों पर ही नहीं पड़ता, वे जिसे फुलवारी के पास एक क्षण के लिये खड़ी हो जाती हैं, वहां के पत्र और फूल पीत वर्ण के हो जाते हैं।

नैकु होत ठाड़ी कुंवरि जिहिं फुलवारी मांहि।
पत्र-फूल तहां के सबै पीत बरन ह्रै जाहिं।।
जयजय श्यामाश्याम । क्रमशः ...

Tuesday, 24 May 2016

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा 3

हित सम्प्रदाय और श्रीराधा 3

क्रमशः ...
हिताचार्य की श्रीराधा अपने अद्भुत प्रेम- रूप और गुणों के कारण श्रीकृष्‍णाराध्‍या हैं और गुरु-रूपा हैं। उनकी यह दो विशेषताऐं उनको उनके अन्‍य स्‍वरूपों से भिन्न बनाती हैं। यह दोनों विशेषताऐं नित्‍य प्रेम-विहार में भी सुस्‍पष्ट दिखलाई देती हैं और इन्‍हीं को हितप्रभु ने अपनी सेवा-पद्वति में प्रदर्शित किया है।

नित्‍य प्रेम- विहार में, श्रीराधा अपनी सहचरियों की तो गुरु हैं ही और उनको संगीत, नृत्‍य, माला ग्रन्‍थन, चन्‍दन- निर्द्यर्षण आदि की शिक्षा देती हैं। साथ ही अपने प्रियतम की भी वे शिक्षा- गुरु हैं। स्‍वामी हरिदास जी और व्‍यासजी ने अपने कई पदों में श्रीराधा के इस रूप के चित्त उपस्थित किये हैं। व्‍यासजी का एक प्रसिद्ध पद देखिये;

पिय कौं नाचन सिखवत प्‍यारी। वृन्‍दावन में रास रच्‍यौ है शरद चन्‍द उजियारी। ताल-मृदंग, उपंग बजावत प्रफुलित ह्रै सखि सारी।। बीन,बैनु-धुनि नूपुर ठुमकत खग्-मृग दसा विसारी। मान-गुमान लकुट लिये ठाड़ी डरपत कुंज विहारी।। व्‍यास स्‍वामिनी की छवि निरखत हंसि-हंसि दै करतारी।

स्‍वामी हरदिासजी ने कहा है ‘कुंज विहारी नाचने में निपुण हैं और लाड़िली नचाने में कुशल हैं। वे विकट ताल पकड़ कर अपने प्रियतम के साथ ‘ताता- थेई’ बोलती हैं। तांडव, लास्‍य एंव अनेक नृत्‍य- भेदों की जो विभिन्न रूचित उनके चित्त में उठती है, उनक कौन गिन सकता है ? मेरी स्‍वामिनी श्रीश्‍यामा के आगे अन्‍य सब गुणी फीके पड़ गये हैं।'

कुंज विहारी नाचत नीके लाड़िली नचावत नीके।
औघर ताल धरै श्रीश्‍यामा ताता थेई ताता थेई बोलत संग पी के।।
तांडव, लास्‍य औरअंग कौ गनै जे-जे रुचि उपजत जी के।
श्रीहरिदास के स्‍वामी कौ मेरु सरस बन्‍यौ और गुनी परे फीके।।

हितप्रभु की यह श्रीराधा सुपूर्णतया भाव- स्‍वरूपा हैं किन्‍तु यह भाव नित्‍य प्रगट है। राधा-सुधा- निधि में श्रीराधा को ‘परम -रहस्‍य’ ‘पूंजीभूत रसामृत,’ ‘प्रेमानंद- घनाकृति,’ ‘निखिल निगनिगभागम अगोचर’ आदि कहने के साथ ‘वृषभानु की कुलमणि’ और ‘ब्रजेन्‍द्र- गृहिणी यशोदा का गोविन्‍द के समान प्रेमैक पात्रमह:बतलाया गया है। इन अद्भुत श्रीराधा में ‘प्रमोल्‍लास की सीमा, परम रस-चमत्‍कार – वैचित्रय की सीमा, सौन्‍दर्य की सीमा, नवीन रूप-लावण्‍य की सीमा, लीला-माधुर्य की सीमा, वात्‍सल्‍य की सीमा, सुख की सीमा, और रति-कला केलि-माधुर्य की सीमायें आकर मिली हैं।’

इनके स्‍वरूप का निर्माण ‘लावण्‍य के सार, सुख के सार, कारुण्‍य के सार, मधुर छवि- रुप के सार, चातुर्य के सार, रेति- केलि-विलास के सार और संपूर्ण सारों के सार के द्वारा हुआ है।’

इन असाधारणा वृषभानु नंदिनी का परिचय देते हुए सेवकजी कहते हैं, वे सुभग सुन्‍दरी हैं, उनका सर्वांग सहज शोभा से मंडित है और उनका रूप भी सहज है। वे सहज आनंद का वर्णन करने वाली मेघ माला हैं और सहज-रूप वृन्‍दावन की नित्‍य उदित चन्द्रिका हैं। उनकी नित्‍य नवल- केलि सहज है आर उनकी प्रीति एवं सुख चैन सहज है। उनके प्रत्‍येक अंग में सहज माधुर्य भर रहा है, जिसका वर्णन मुझसे नहीं होता।’

सुभग सुन्‍दरी, सहज शोभा सर्वांग प्रति, सहज रूप वृषभन नंदिनी।
सहजानंद कादंबिनी, सहज विपिन वर उदित चंदिनी।।[1]

सहज केलि नित-नित नवल, सहज रंग सुख-चैन।
सहज माधुरी अंग प्रति, मोपै कहत बनै न।।

सहज माधुर्य सर्वथा अवर्णीय होता है। तीनों लोकों में जिसकी समता नहीं है, उसका वर्णन कैसे हो ? हितप्रभु ने कहा है ‘श्रीराधा के अंगों के सहज माधुर्य की बात सुन कर देवलोक भू लोक और रसातल के कबि-कुल की मति दहल जाती है। वे इस चक्कर में पड़ जाते हैं कि हम इसको किसके समान बतलाकर समझावें।’

देवलोक, भूलोक, रसातल सुनि कवि-कुल मति डारिये।
सहज माधुरी अंग-अंग की कहि कासौं पटतरिये।।[2]

श्रीध्रुवदास ने, इस रूप के वर्णन में अपने को सर्वथा असमर्थ पाकर भी, इसकी कुछ ‘खोज’[3] बतलाने की चेष्टा की है। जिस प्रकार एक रत्ती सोने को देखकर सुमेरु पर्वत की कल्‍पना की जा सकती है, उसी प्रकार इन ‘खोजों’ के सहारे भी राधा के सहज सौन्‍दर्य को कुछ समझा जा सकता है। उन्‍होंने बतलाया है, ‘संसार में जितनी द्युति और कांतियां बखानी जाती हैं, वे सब राधा कुंवरि के अंगों को देखकर सकुचा जाती हैं। छवि उनके आगे हाथ जोड़कर खड़ी रहती है और गुण की कलायें उनके ऊपर चंवर ढ़ुराती हैं। उनको देखकर चतुराई चित्र बन जाती है और चपलता पंगु हो जाती है। मृदुला उनके अंगों का स्‍पर्श नहीं कर सकती, श्री वृषभानु कुंवरि का तन इतना अधिक सुकुमार है। जहां भानु भी श्रीराधा के चरण- नख में से निकलने वाले रूप-प्रकाश की समता नहीं कर सकता, वहां उपमा- दीपक का रखना बड़ी ना- समझदारी का काम है।' क्रमशः ... जय जय श्यामाश्याम ।।।।