हित सम्प्रदाय और श्रीराधा भाग 5
क्रमशः ...
श्री राधा के गौर वर्ण का प्रभाव केवल ब्रजवासियों के हृदयों पर ही नहीं पड़ता, वे जिसे फुलवारी के पास एक क्षण के लिये खड़ी हो जाती हैं, वहां के पत्र और फूल पीत वर्ण के हो जाते हैं।
नैकु होत ठाड़ी कुंवरि जिहिं फुलवारी मांहि।
पत्र-फूल तहां के सबै पीत बरन ह्रै जाहिं।।
इसलिये, ध्रुवदासजी ने श्री राधा के रूप की सबसे बड़ी अद्भुतता यह बतलाई है कि इसको जो देख पाता है, वह भी रूपवान हो जाता है।
याकौ रूप जु देखै आई, सोऊ रुपवंत ह्रै जाई।
रूप की यह परात्पर सीमा, मृदुता, दयालुता और कृपालुता की भी राशि है। इनको कभी भूलकर भी क्रोध नहीं आता और इनके हृदय में तथा मुख पर सदैव हास छाया रहता है। प्यारे श्यामसुन्दर की यह सुकुमारी प्रिया जिनकी उपास्य हैं वे अनेक वार धन्य हैं। इस उपासना के सुख को छोड़कर अन्य संपूर्ण सुख दुख रूप हैं।’
सहज सुभाव परयौ नवल किशोरी जू कौ,
मृदुता, दयालुता, कृपालुता कीरासिहै।
नैकहूं न रिस कहूं भूले हू न होत सखि,
रहत प्रसन्न सदा हियेमुख हासि है।
ऐसी सुकुमारी प्यारे लाल जू की प्रान प्यारी,
धन्य, धन्य, धन्य तेई जिनके उपासि है।
हित ध्रुव ओर सुख जहां लगि देखियतु,
सुनियतु जहां लागि सबै दुख पासि है।
एक श्लोक में श्रीराधा को ‘शक्ति: स्वतन्त्रा परा’ कहा गया है; और इस के आधार पर कुछ लोग हित प्रभु को शक्ति-रूपा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु उक्त श्लोक को ध्यान पूर्वक देखने से मालूम होता है कि इस में हित प्रभु ने श्रीराधा संबंधी सब प्रचलित मान्यताओं को एक स्थान में एकत्रित कर दिया है और साथ में अपना दृष्टिकोण भी दे दिया है। वह श्लोक इस प्रकार है।
प्रेम्ण: सन्मधुरौज्ज्वलस्य हृदयं, श्रृंगार लीला कला-
वैचित्री परमावधि, भंगवत: पूज्यैवकापीशता।
ईशानी च शची, महा सुख तनु:, शक्ति: स्वतन्त्रा परा,
श्री वृन्दावननाथ पट्ट महिषी राधैव सेव्या मम।।[1]
इस श्लोक में, हितप्रभु ने, ‘मधुरोज्जवल प्रेम की हृदय रूपा, श्रृंगाल-लीला- कला- वैचित्री की परमावधि, श्री कृष्ण की कोई अनिर्वचनीय आज्ञाकर्त्री, ईशानी, शची, महा सुख रूप शरीर वाली, स्वतन्त्रता परा शक्ति और वृन्दावन नाथ की पट्ट महिषी श्रीराधा’ को ही अपनी सेव्या बतलाया है। हितप्रभु के सिद्धान्त से परिचित कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे श्रीराधा की उपसाना उनके ईशानी, शची या शक्ति के रूपों में करते हैं किन्तु इन सब रूपों वाली श्री राधा ही उनकी इष्ट हैं, इसमें संदेह नहीं है।
हित प्रभु श्यामाश्याम के बीच में स्थूल विरह नहीं मानते किन्तु राधा सुधा निधि में एक श्लोक ऐसा भी मिलता है जिसमें उन्होंने स्थूल वियोगवती श्री राधा की वंदना की है।[2]
इस श्लोक को देखकर भी लोगों को भ्रम होता है और कुछ लोग तो इस प्रकार के श्लोकों के आधार पर राधा-सुधा- निधि को ही श्रीहित हरिवंश की रचना स्वीकार नहीं करते। किन्तु हितप्रभु के तीस-चालीस वर्ष बाद ही होने वाले श्रीध्रुवदास ने इस प्रकार की उक्तियों के संबंध में अपने ‘सिद्धान्त-विचार’ में कहा है, ‘जो कोऊ कहै कि मान-विरह महा पुरुषन गायो है, सो सदाचार के लिये। औरनि कौं समुझाइवे कौं कहयौ है। पहिले स्थूल-प्रेम समुझै तब आगे चलै। जैसे, श्रीभागवत की बानी। पहिले नवधा भक्ति करै तब प्रेम लच्छना आवै। अरु महा पुरुषनि अनेक भांति के रस कहे हैं, एपै इतनौ समुझनौ के उनको हियौ कहां ठहरायौ है, सोई गहनौ ... क्रमशः ...
जयजय श्यामाश्याम ।।।