सहचरी भाग 5
पहले आपने पढ़ा ,
सखीगण को नव-दंपति रूपी खिलौना मिल गये हैं और वे अपना मन उनको देकर उनका मन लिये रहती हैं। यह सांवल और गौर हंस- शावक वृन्दा- कानन रूपी छवि –सरोवर में क्रीडा करते रहते हैं। यह दोनों क्षण- क्षण में नये- नये प्रेम कौतुक करते हैं और सखीगण नेत्रों की ओक से लीलामृत का पान करती रहती हैं।’
लिये दिये मन रहै सहेली दंपति मिले खिलौना।
कानन छवि-सर क्रीडत सांवल-गौर हंस मनौ छौना।।
नित-नित नये-नये अस कौतुक भये-न हैं पुनि हौंना।
वन्दावन हित रूप अमी नैनति की ओकअचौंना।।
युगल के साथ सखियों का मित्र भाव तो प्रसिद्ध ही है। इनका अनुराग संभ्रम शून्य है। यह अपनी स्वामिनी से सहज भाव से कह सकती हैं ‘हे भामिनी, तू गर्व से मत्त होकर गुम –सुम रहती है, अपनी बात मुझसे क्यों नहीं कहती? हे राधिका प्यारी, मैं कहते- कहते थक गई, तू मुझसे रात्रि का विलास कहने में क्यों लज्जित होती है?’
अपनी बात मोसौं कहि री भामिनी,
औंगी-मौंगी रहत गरब की माती।
हौं तोसौं कहत हारी, सुनि री राधिका प्यारी,
निशि कौ रंग क्यों न कहत लजाती।।
जिस समय श्रीराधा मानिनी होती है, सखियां ही सहानुभूति पूर्ण एवं विदग्ध वचनों से उनका मान-मोचन करती हैं। श्यामसुन्दर के रूप-सौन्दर्य एवं उनकी अनन्त प्रीति के मार्मिक वर्णन से आरंभ करके वे शरद की सुन्दर रात्रि के पल- पल घटने का सूचन करती है। अन्त में, अत्यन्त अपनपे के साथ निवेदन करती हैं, ‘हे सखी, मैं अब अपनी ओर से एक बात कहती हूं, उसे तुम्हें मान लेना चाहिये। हे सुमुखि, तुम अकारण ही यह घन विरह दुख सहन कर रही हो’। सखी की सौहार्द से भरी हुई अन्तिम बात प्रिया के चित्त पर असर कर जाती है और वे प्रसन्नता पूर्वक अपने प्रियतम से मिल कर सुख-सिन्धु में निमग्न हो जाती हैं।
हौं जु कछु कहत निज बात सुनि मान सखि,
सुमुखि बिनु काज धन विरह दुख भरिबौ।
मिलत हरिवंश हित कुंज किसलय सयन,
करत कल केलि सुख-सिन्धु में तरिबौ।।
राधा-मोहन के प्रति सखियों की प्रीति का तीसरा भाव पतिवत् भाव है। जिस प्रकार पुत्रवत् भाव एवं पुत्रभाव में भेद है, उसी प्रकार पतिवत् भाव में और पतिभाव में अंतर है। गोपीजनों का नंदनंदन में पतिभाव था, वे सब श्री कृष्ण कान्ता थीं। सखीजन युगल की प्रतिवत् भाव से करती हैं किन्तु वे अपने को कृष्ण –कान्ता नहीं मानतीं। वास्तव में युगल- उपासना में कान्ताभाव के लिये अवकाश नहीं है। कान्ताभाव वहीं उत्पन्न होता है, जहां अकेले घनश्याम प्रीति के विषय होते हैं। जहां युगल का प्रेम –माधुर्य प्रीति विषय होता है वहां उसका आस्वाद-सखी भाव के द्वारा ही संभव है। अन्य सिद्धान्तों में समस्त गोपीजन श्रीकृष्ण की स्वरूप शक्ति होने के कारण नित्य नायिका हैं। राधाकृष्ण की प्रेम लीला में सहायक होने के लिये उन्होंने सखी-भाव अंगीकार किया है। हम जानते हैं कि राधावल्लभीय सिद्धान्त में सखियां युगल की पारस्परिक रति का रूप हैं और यहां पर एक मात्र नायक श्री नंदनंदन और एक मात्र नायिका श्रीवृषभानु नंदिनी हैं। नायिका किंवा श्रीकृष्ण-कान्ता न होते हुए भी इन सखियों की प्रीति पातिव्रत्य से पूर्ण है और इनके मन, वाणी और कर्म एक मात्र युगल की सेवा में लगे हुए हैं। श्यामा- श्याम सुहाग की मूर्ति हैं, सहचरी- गण इन दोनों के सुहाग से सुहागवजी हैं। युगल का सुरंग अनुराग सखियों की मांग का सैंदुर है।
युगल की सखियों के प्राण-धन हैं। इनकी कृपा इनके सुख का एक मात्र साधन है। राधमोहन सदैव अपनी दासियों की रुचि के अनुकूल रहकर उनके मन की साध पुजाते रहते हैं यह देखकर आनंद के रंग से भरी हुई सखियां फूली नहीं समातीं। इन सब के एक मात्र जीवन दोनों वृन्दावन-चन्द्र हैं।
फूली अंग ने मात है भरीं रंग आनंद।
जीवन सबकै एक ही विवि वृन्दावन चंद।।
क्रमशः ...
जयजय श्यामाश्याम ।
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