हित रस और श्यामसुन्दर
भाग 7
श्याम किशोर जू तुमकौं दोऊ रंग रंगित पीतांवर-चूनरी।
एसौ रूप कहां तुम पायौ अहनिंस सोच उधेरा-बूनरी।।[2]
अपने वस्त्राभूषणों के द्वारा घनश्याम के रूप में अभिवृद्धि होती देखकर श्रीराधा स्वयं उनकी वेश- रचना को पूर्ण बना देती हैं। वे हंसकर लाड़ सहित श्याम सखी के भाल पर सौभाग्य चिन्ह –बैंदी- लगाती हैं और अपनी बेसर उनको पहिना देती हैं। श्याम सुन्दर के मन में मोद बढ़ जाता है और उनके मुख पर नई रूप-छटा चढ़ जाती है। श्री राधा ओर सखीगण उनकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखते रह जाते हैं।
चूनरी लाल सुरंग छबीली की, ओढै छबीली महा छवि पाई।
केसन गूंथि रची रूचि मांगरु, नैननि जंजन-रेख बनाई।।
बैंदी दई हंसि लाड़िली रंग सौ, बेसर लैं अपनी पहिराई।
रूप चढ़यौ, मन मोद बढ़यौ, ध्रुव देखत नैन निमेष भुलाई।।
रसिक भक्तों ने श्रृंगार- मूर्ति श्याम सुन्दर के रूप- गुण का आस्वाद अनेक प्रकार से किया है। मीरा बाई के सामन कुछ भक्तों ने उनको अपना परम कांत मान कर उनके साथ सीधा संबंध स्थापति किया है। अन्य भक्तों ने श्री राधा किंवा गोपीगणा के राग का अनुगमन करके उनके रूप- माधुर्य का आस्वाद किया है। हिताचार्य का प्रकार इन दोनों से भिन्न है। वे श्री कृष्ण को अपना प्राण वल्लभ नहीं मानते और न श्रीराधा के राग का अनुगमन करके उन तक पहुंचने की चेष्टा उनकी है। उनकी ‘प्राणनाथ’ श्रीराधा हैं और उनही के नेह- नाते से श्याम सुन्दर उनको प्रिय हैं। श्रीराधा के चरणों में घनश्याम की अत्यन्त आसक्ति देखकर व्यास कुमार (हितप्रभु) उन पर रीझ गये है और उन्होंनं इस ‘अविचल जोड़ी’ को अपने हृदय का हार बना लिया है।
व्यासनंद के प्राणधन गौर वर्ण निजु नाम।
ताके नाते नेह सौं प्यारौ प्रीतम श्याम।।
अति आसक्ति लखि लाल की रीझे व्यास कुमार।
यह जोरी अविचल सदा कीन्ही निज उर-हार।।
हित रस और श्यामसुन्दर यहाँ पूर्ण ।
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