भगवती कात्यायनी द्वारा चीर-हरण
भाग 2
कितनी नन्हीं बालिकाएँ- इनमें कोई दस वर्ष से बड़ी नहीं है। सबसे बड़ी है चन्द्रावली और वह भी दस वर्ष की। अनेक तो आठ व र्ष से भी छोटी हैं। ये कुसुम-कलिका जैसी बालिकाएँ प्रातः अरुणोदय होते ही उठती हैं और अपनी डलियाँ उठाये निकल पड़ती हैं। एक दूसरी को पुकारती हैं। परस्पर एक दूसरी की भुजाओं में भुजाएँ डालकर गाती हुई- श्रीनन्दनन्दन के गुण-गीत गाती हुई चल पड़ती हैं। ये सहज स्वभाव से भोली अबोध कन्याएँ- इन्हें अभी यह भी पता नहीं कि कुछ रहस्य भी रखा जाता है। ये सब एक का ही वरण करना चाहती हैं और परस्पर खुलकर उसी की चर्चा करती खिलखिलाती हँसती हैं बीच-बीच में।
एक ही अच्छी बात हुई इसमें। अब दिनभर इनमें-से कोई उदास नहीं रहती। सब व्यस्त बनी रहती हैं। सबको पूजा से लौटकर स्वयं अपनी डलिया भली प्रकार मलकर स्वच्छ करनी रहती है। सबको पूजा के एक-एक अक्षत, पुष्प, धूप, दूर्वा, सिन्दूर आदि सब सजाने रहते हैं। कभी कुछ लाती हैं, कभी कुछ सजाती हैं। कभी माल्य-ग्रन्थन करती हैं या कोई नैवेद्य बनाती हैं। श्रीराधा तक इसमें सखियों के द्वारा कुछ नहीं करातीं। सब स्वयं करेंगी। रात्रि में ही डलिया सजाकर सब लेंगी। केवल पुष्प, दुर्वा प्रभात में चयन करेंगी।
सबने नन्दग्राम-बरसाने के मध्य में एक एकान्त कालिन्दी कूल स्नान के लिये निश्चय किया है। पहुँचते ही सब अपने वस्त्र उतारकर किनारे धर देती हैं। कौशेय वस्त्र किसी के अशुद्ध नहीं होते और इनके वस्त्र-इनकी पद-रज भी जगती को परिपूत करती है। बालिकाएँ ही हैं सब, जल में प्रवेश करके परस्पर जल-सिञ्चन करती हैं, विनोद करती हैं- यह स्वाभाविक है। सूर्योदय से पूर्व इनका स्नान समाप्त हो जाता है।
आर्द्र अलकें, भीगे शरीर झटपट वस्त्र पहिनकर सब पुलन पर अपनी-अपनी डलिया लेकर सिमटकर बैठ जाती हैं। ऊपर की रेत हटाकर गीली रेत से एक स्तूपाकार पिण्डी बनाती हैं। जिनके भ्रू-संकेत से योगमाया सहस्त्र-सहस्त्र ब्रह्माण्डों की सृष्टि करती हैं, वे स्वयं अपनी लाल-लाल सकुमार हथेलियों से मेरे इस पीठ की प्रतिष्ठा करती हैं। इतना पवित्र, जागृत पीठ मुझे कभी कहीं भला क्यों प्राप्त होने लगा। मैं इस पीठ में प्रविष्ट होकर पूजा प्राप्त करती हूँ। मैं पूजा प्राप्त करती हूँ प्रतिदिन श्रीराधा तथा इनकी सखियाक स्वकरों की। ऐसी पूजा इतनी श्रद्धा सुरों को स्वप्न में भी सुदुर्लभ है; किंतु यह सम्मान स्वीकार करने में जो संकोच है, जो विवशता है, उसे मैं ही जानती हूँ।
जल, अक्षत, धूप, दीप, दूर्वा, पुष्प, पुष्पमाल्य, कुंकुम, सिन्दूर, फल-अपूपादि नैवेद्य-बालिकाओं को पूजा क्रम ज्ञात नहीं है और मुझे अपनी सुधी कहाँ रहती है। वे जो भी अर्पण को उठाती हैं, मैं सादर स्वीकार करने को समुत्सुक हूँ। मैं स्वीकार करती चलती हूँ- क्या और कब देखने की शक्ति रहती कहाँ है मुझमें। ये जो करें- जैसे करें, वही विधि। इनकी इच्छा ही तो विधि है।
क्रमशः ...
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