सहचरी भाग 1
राधावल्लभीय धर्म में, जिस प्रकार, पुराणों के राधाकृष्ण प्रेम की दो मधुरतम अभिव्यक्तियों के रुप में सामने आते हैं, उसी प्रकार पुराणों की सखियां भी, इस धर्म में, एक नया व्यक्तित्व ग्रहण कर लेती हैं। यहां सखियों के नाम, वेष भूषादि वहीं हैं जो पुराणों में वर्णित हैं। ध्रुवदासजी ने ‘रस मुक्तावली’ में पुराणों के आधार पर ही सखियों का वर्णन किया है और आरंभ में ही कह दिया है।
नाम, बरन, सेवा, बसन जैसे सुने पुरान।
ते सब ब्यौरे सौं कहौं अपनी मति अनुमान।।
किन्तु, यह सब होते हुए भी, वे पुराणों की सहचरियां नहीं हैं।इस सम्प्रदाय में, वे परात्पर प्रेम का एक रूप- विशेष हैं और प्रेम-विहार केलिए उतनी ही आवश्यक हैं जितनेअन्य दो रूप- श्रीराधा और श्यामसुन्दर।
सहचरीगण प्रेरक- प्रेम की मूर्तियां हैं। भोक्ता- भोग्य की पारस्परिक रति ही इनके रूप में प्रत्यक्ष होती है। श्याम-सुन्दर की अनंत प्रेम- तृषा तथा श्रीराधा के परम उद्धार प्रीति संभार को अपने हृदय में रखकर सहचरीगण इन दोनों की शुद्ध तत्सुखमई सेवा में प्रवृत्त रहती हैं। भोक्ता–भोग्य की स्वाभावत: भिन्न वर्ण वाली दो प्रीतियों के मिलने में इस नवीन प्रकार के अत्यन्त मनोरम प्रीति- स्वरूप की रचना हुई है जो दोनों प्रीतियों से अभिन्न होते हुए भी भिन्न हैं। दो प्रीतियों का संगम-स्थल से अभिन्न होते हुए भी भिन्न है। दो प्रीतियों का संगल- स्थल होने के कारण इसको हित- संधि भी कहा जाता है। प्रेम के क्षेत्र में हित- संधि की स्थिति को सोदाहरण समझाते हुए मोहनजी कहते हैं, ‘हम प्रेम की अद्भुत गति है और इसका प्रकाश अनेक प्रकारों में होता है। दो शरीरों की एक परछांही किसी ने न सुनी होगी, किन्तु युगल के बीच में जिनको हम सखी कहते हैं, वह दो तन की एक परछांही है। जैसे दो नेत्रों में एक दृष्टि रहती है, वैसे ही इन दोनों के बीच में सुखदाई सखी है। जैसे रात और दिन के बीच की संधि का नाम सन्ध्या है, जैसे ॠतुओं की संधि शरद और बसंत हैं और जैसे मिश्री और पानी मिलकर शरबत कहलाते हैं, संधि- रूपा सखियों को भी इसी भांति समझना चाहिये।
अद्भुत गति या प्रेम की या में रीति अनेक।
दुहुंतन की काहू सुनी परछाहीं है एक?
दुहंअन बीच सखी यह नाहीं, दुहुंतन की एक परछाहीं।
त्यौ दुहुं बीच सखी सुखदाई, दुहुं नैननि ज्यौं दीठ रहाई।
सांझ संधि ज्यौं निसदिन माहीं, शरद-वसंत रितुन में आहीं।
मिश्री पानी शरबत ज्यौं कै, संधि सहेली समुझैत्यौं के।।
सखियां युगल की पारस्परिक रति का रूप हैं, अत: वे स्वभावत: युगल की रति से आसक्त हैं। ‘दोनों नव किशोर सहज प्रेम की सीमा हैं, सखियों का प्रेम इस प्रेम के साथ है अत: इनके सुख की सीमा नहीं है।'
सहज प्रेम की सींव दोउ नवकिशोर वर जोर।
प्रेम की प्रेम सखीन कै तिहि सुख कौ नहीं ओर।
सखियों का प्रेम असीम होने के साथ श्यामाश्याम के प्रेम से सरस भी अधिक है। इसका कारण यह बतलाया गया है कि ‘युगल जिस प्रीति का उपभोग करते हैं उनमें प्रेम और नेम ताने- बाने की तरह बुने रहते हैं। सखियों का प्रेम इन दोनों के प्रेम के साथ है अत: उनको नेम स्पर्श नहीं करते और इस दृष्टि से उनका प्रेम युगल के प्रेम से सरस है।
लाल लाड़िली प्रेम तै सरस सखिनु कौ प्रेम।
अटकी हैं निजु प्रेमरस परसत तिनहिं न नेम।।
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