भगवान के माधुर्य का अर्थ है - नित्य पूर्ण ऐश्वर्यमय भगवान का गूढ़तम नर-विग्रह और उनकी दिव्यानन्दमयी नरलीला। इस लीला में अशेष सौन्दर्य, लालित्य, चारुता, मधुरता और वैदग्ध्यादि गुणों का वह अतुलनीय विलक्षण समूह होता है, जो समस्त चराचर जगत - चतुर्दश-भुवन के साथ ही स्वयं सर्वाकर्षक भगवान श्रीकृष्ण के चित्त को भी आकर्षित करता है। उन नराकृति परब्रह्म के नर-विग्रह के असमोर्ध्व सौन्दर्य, माधुर्य, वैचित्र्य और वैदग्ध्यादि गुणों का वर्णन करते हुए उनमें चार प्रकार की विशेष माधुरी का नित्य वर्तमान रहना बतलाया गया है। वे हैं - रूपमाधुरी, वेणुमाधुरी, प्रेममाधुरी और लीलामाधुरी। यही माधुर्य-चतुष्टय श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की विशेषता है।
स्वयं लीला-विस्तार करके इस माधुर्य-स्वरूप का विस्तार करना ही प्रेमी भक्तों के मन में श्रीकृष्ण के आविर्भाव का एकमात्र मुख्य कारण है। इस लीला में भगवान गोपवेश, वेणु-कर, नवकिशोर नटवररूप में लीलायमान रहते हैं। यही मधुरलीला-तत्त्व है। भगवान के स्वयंरूप अवतार में इसकी प्रधानता होने के कारण ही वे कंस से कारागार में ऐश्वर्यमय चतुर्भुज देवरूप में प्रकट होकर तुरंत ही द्विभुज बालरूप में बदल गये और वसुदेव को प्रेरित करके मधुर लीलानन्द का रसास्वादन करने-कराने मधुर व्रज में पधार गये।
श्रीकृष्ण-माधुर्य के पूर्णतम प्रकाश का क्षेत्र एकमात्र व्रज ही है। वहाँ ऐश्वर्य सर्वथा छिपा रहता है। कहीं प्रकट होता है तो माधुर्य की सेवा के लिये ही। व्रज में ही विशुद्ध ममतायुक्त, किंतु स्वसुखवान्छा-विहीन प्रेम-माधुर्य की सरिता बहती है। भगवान के तीन रूप हैं - ब्रह्म, परमात्मा और भगवान। ब्रह्म निश्चय ही आनन्दस्वरूप है, पर ब्रह्म में शक्ति की अभिव्यक्ति नहीं है। अन्तर्यामी परमात्मा में चिच्छक्ति का आंशिक विकास है, अतएव ह्लादिनी शक्ति का भी अस्तित्व अभिव्यक्त है; पर वह बहुत सूक्ष्म परिणाम में ही है। ऐश्वर्य-प्रधान भगवान में शान्त भक्त को माधुर्य की कुछ अनुभूति होती है, पर वह भगवदैश्वर्यज्ञान को छिपा नहीं सकती। व्रज के गोपीवल्लभ भगवान श्रीकृष्ण में पूर्ण माधुर्य का प्रकाश है। इसी से यहाँ पूर्णतम माधुर्यास्वादन में ऐश्वर्यादि का अनुभव सम्पूर्ण रूप से तिरोहित रहता है। यही विशुद्ध प्रेम है।
श्रुति कहती है -
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
भगवत्-स्वरूप-तत्त्व नित्य, एक और परिपूर्णतम है। उसमें जीव तथा जड पदार्थों की भाँति न खण्डता है, न अपूर्णता है, न परस्पर पृथक्ता या प्रतियोगिता ही है। तथापि अखिलरसामृतमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण माधुर्य के प्रकाश की विशेषता के कारण व्रज में पूर्णतम रसिकशेखर हैं। --- भाई जी ।।।
भगवान के माधुर्य का अर्थ है भाग 2 ---
शक्तिरैश्वर्यमाधुर्यकृपातेजोमुखा गुणाः।
शक्तेर्व्यक्तिस्तथाव्यक्तिस्तारतम्यस्य कारणम्।।
‘ऐश्वर्य, माधुर्य, कृपा, तेज आदि गुणों को शक्ति कहते हैं। शक्ति की न्यूनाधिक अभिव्यक्ति ही तारतम्य में कारण है।’
इस व्रजधाम में भी प्रेम के तारतम्य के अनुसार माधुर्य के अनुभव में भी तारतम्य रहता है। दास्य-रस के प्रेम की अपेक्षा सख्य-रस के प्रेम में, सख्य-रस की अपेक्षा वात्सल्य-रस के प्रेम में और वात्सल्य-रस की अपेक्षा भी गोपांगनाओं के माधुर्यानुभव में उत्तरोत्तर विशेष उतकर्ष है। गोपांगनाओं में भी महाभावस्वरूपा श्रीराधा का प्रेम तथा उनका माधुर्यानुभव सर्वापेक्षा अधिक और सर्वथा अतुलनीय है।
यहाँ भगवान नित्यनवकिशोररूप से श्रीगोपांगनाओं के परम मधुर दिव्यरस का आस्वादन करते हैं। श्रीगोपांगनाओं का प्रेम सर्वथा निरुपाधिक, निरावरण और विशुद्ध है। उसमें ऐश्वर्यज्ञान, धर्माधर्मज्ञान, भावोत्पादन के लिये रूप-गुणादि की अपेक्षा, स्वसुख का अनुसंधान - यहाँ तक कि रमण-रमणीबोध की भी अपेक्षा नहीं है। यह रमण-रमणीबोध मधुर रस मात्र का या कान्ताभाव का जीवन-स्वरूप है। इसके बिना उस जीवन में कोई सार ही नही समझा जाता। परंतु श्रीराधामुख्या गोपांगनाओं के विशुद्ध प्रेम में इसकी भी कोई अपेक्षा या सार्थकता नहीं है। महाभाग्यवती, श्रीकृष्णप्रिया परम सती गोपांगनाएँ नित्य विशुद्ध प्रेम-सुधा-रस के उमड़े हुए सागर के प्लावन में सर्वथा निमग्न हैं। वे एकमात्र प्रियतम-सुख के अतिरिक्त सर्व-विस्मृत हैं। उनकी सम्पूर्ण गति-विधि, सारी चेष्टा-क्रिया एकमात्र श्रीकृष्णसुखमय अनुराग की ही अभिव्यक्ति है। श्रीराधा इन सबकी मूल उत्स-स्वरूपा प्रेम-पराकाष्ठा महाभावमयीहैं। इस महाभाव के साथ रसराज का - श्रीराधा के साथ श्रीमाधव का नित्य परमोज्ज्वल रसोल्लास ही व्रज की अमूल्य तथा अतुल परमार्थ-निधि है।
इस व्रज में भी ‘हतारि-गति-दायक’ भगवान की असुर-वध-लीला होती है। परंतु उस लीला का प्रभाव व्रजवासी प्रेमियों के मन पर ऐश्वर्य की छाया नहीं ला सकता। वे उसमें अपने प्रिय श्रीकृष्ण के किसी ऐश्वर्य का अनुभव नहीं करते, बल्कि उससे श्रीकृष्ण के प्रति उनका सहज प्यार-दुलार और भी बढ़ता है।
आज इस परम माधर्यावतार का मंगल दिवस है। जिन लोगों को पंचम पुरुषार्थ भग्वत्प्रेम की प्राप्ति की इच्छा हो, उन्हें भगवान के इस मधुर स्वरूप की उपासना करनी चाहिये।
व्रज के बाद भगवान की ऐश्वर्यलीला का क्रमशः विशेष प्रकाश होता है और मथुरा-द्वारका में असुरोद्धार लीला चलती है। वहाँ भी माधुर्य छिपे-छिपे अपना प्रभाव अक्षुण्ण रखता है। इसी से रणांगण में कही हुई भगवान की गीता में भी माधुर्य की प्रत्यक्ष ज्योत्स्ना दिखायी देती है-
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।
सारी मथुरालीला और द्वारकालीला में यत्र-तत्र माधुर्य के बड़े विलक्षण दर्शन होते हैं, पर साथ ही वहाँ निष्काम भाव की महत्ता के साथ भगवान अपने आदर्श चरित्र के द्वारा लोकसंग्रह की लीला प्रधान रूप से करते हैं। इस लीला में स्वयं-भगवान के साथ कहीं-कहीं उन्हीं में रहकर लीला करने वाले ऐश्वर्यस्वरूपों की प्रधानता होती है।
यहाँ भगवान निरीह प्रजा को दुराचारी राजाओं से छुटकारा दिलाते हैं - कंस, शिशुपाल, जरासंध, शाल्व, नरकासुर, बाणासुर आदि असंख्य असुरभावापन्न राजाओं का दमन करते हैं, पर स्वयं कहीं भी राज्य ग्रहण न करके निष्काम भाव का प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करते हैं।
जब तक संसार में धर्मभीरु, श्रद्धासम्पन्न, भगवद्विश्वासी, भोगों में अनासक्त, सर्वभूतहिताकाङ्क्षी, सदाचारपरायण, असंग्रही मनुष्यों की संख्या अधिक रहती है, जब तक मनुष्य में कर्तव्यपरायणता और त्यागवृत्ति की प्रधानता रहती है, तब तक सुख-शान्ति रहती है। मानव की जीवन यात्रा अपने परम लक्ष्य भगवान की ओर चलती है। क्रमशः ... ...
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