श्रीराधा-कृष्ण की अष्टकालीन स्मरणीय सेवा भाग 3
मध्याह्नकालीन सेवा
33. किसी एक स्थान में रसोई बनाना।
34.श्रीयुगल के पारस्परिक रहस्यालाप का श्रवण करना।
35.श्रीयुगल के वन-विहार, वसन्त-लीला, झूलन-लीला, जल-विहार, पाश-क्रीड़ा आदि अपूर्व लीलाओं के दर्शन करना।
36.श्रीयुगल के वन-विहार के समय श्रीमती की वीणा आदि लेकर उनके पीछे-पीछे गमन करना।
37.अपने केशों द्वारा श्रीयुगल के श्रीपाद पद्यों की रज को झाड़ना-पोंछना।
38.होली-लीला में पिचकारियों को सुगन्धित तरल पदार्थों से भरकर श्रीराधिका और सखियों के हाथों में प्रदान करना।
39.झूलन-लीला में गान करते हुए झूले में झोटे देना, झुलाना।
40.जल-विहार के समय वस्त्र और अलंकार आदि लेकर श्रीकुण्ड के तीर पर रखना।
41.पाश-क्रीडा में विजय प्राप्त श्रीराधिका जी की आज्ञा से श्रीकृष्ण के द्वारा दाव पर रखी सुरंग आदि सखियों (या मुरली आदि) को बल पूर्वक लाकर उनके साथ हास्य-विनोद करना।
42.सूर्य-पूजा करने के लिये राधाकुण्ड से श्रीमती के जाते समय उनके पीछे-पीछे जाना।
43.सूर्य-पूजा में तदनुकूल कार्यों को करना।
44.सूर्य-पूजा के पश्चात् श्रीमती के पीछे-पीछे चलकर घर लौटना।
(सूर्यास्त के पूर्व छः दण्ड के काल को अपरांह–काल कहा जाता है।
सूर्यास्त के उपरान्त छः दण्ड का काल सायंकाल के नाम से व्यवहृत होता है।)
अपरांहकालीन सेवा
श्रीराधिकाजी के रसोई बनाते समय उनके अनुकूल कार्य करना।
श्रीराधारानी के स्नान करने के लिये जाते समय उनके वस्त्राभूषण आदि लेकर उनके पीछे-पीछे जाना।
स्नान के पश्चात् उनका श्रंगार आदि करना।
सखियों से घिरी हुई श्रीवृन्दावनेश्वरी के पीछे-पीछे अटारी पर चढ़कर वन से लौटते हुए सखाओं से घिरे श्रीकृष्ण के दर्शन करके परमानन्द-उपभोग करना।
छत के ऊपर से श्रीराधिका जी के उतरने के समय सखियों के साथ उनके पीछे-पीछे उतरना।
सायंकालीन सेवा ---
श्रीमती का तुलसी के हाथ व्रजेन्द्र श्रीनन्दजी के घर भोज्य-सामग्री भेजना।
श्रीकृष्ण को पान की गुल्ली और पुष्पों की माला अर्पण करना तथा संकेत-कुंज का निर्देश करना।
तुलसी के नन्दालय जाते समय उसके साथ जाना।
नन्दालय से श्रीकृष्ण का प्रसाद आदि ले आना।
वह प्रसाद श्रीराधिका और सखियों को परोसना।
सुगन्धित धूप के सौरभ से उनकी नासिका को आनन्द देना।
गुलाब आदि से सुगन्धित शीतल जल प्रदान करना।
कुल्ला आदि करने के लिये सुवासित जल से पूर्ण आचमन-पात्र प्रदान करना।
इलायची-लौंग-कपूर आदि से सुवासित ताम्बूल अर्पण करना।
तत्पश्चात् प्राणेश्वरी का अधरामृत-सेवन अर्थात उनका बचा प्रसाद भोजन करना।
प्रदोषकालीन सेवा ---
प्रदोषकाल में वृन्दावनेश्वरी का वस्त्रालंकारादि से समयोचित श्रंगार करना अर्थात कृष्णपक्ष में नील वस्त्र आदि और शुक्लपक्ष में शुभ्र वस्त्रादि तथा अलंकार धारण कराना एंव गन्धानुलेपन करना।
अनन्तर सखियों के साथ श्रीमती को अभिसार कराना तथा उनके पीछे-पीछे गमन करना।
( सांय काल ले उपरान्त छ: दण्ड काल के प्रदोष कहते है।
प्रदोष के उपरान्त बारह दण्ड के काल को निशाकाल कहा जाता है। )
निशाकालीनसेवा ---
निकुंज में श्रीराधा-कृष्ण का मिलन दर्शन करना।
रास में नृत्य आदि की माधुरी के दर्शन करना।
वृन्दावनेश्वरी श्रीराधिकाजी के नूपुर की मधुर ध्वनि और श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि की माधुरी को श्रवण करना।
श्रीयुगल की गीत-माधुरी का श्रवण करना तथा नृत्यादि के दर्शन करना।
श्रीकृष्ण की वंशी को चुप कराना।
श्रीराधिका की वीणा-वादन-माधुरी का श्रवण करना।
नृत्य, गीत और वाद्य के द्वारा सखियों के साथ श्रीराधाकृष्ण के आनन्द का विधान करना।
सुवासित ताम्बूल, सुगन्धित द्रव्य, माला, हवा, सुवासित शीतल जल और पैर सहलाने आदि के द्वारा श्रीराधा-कृष्ण की सेवा करना।
श्रीकृष्ण का मिष्टान्न तथा फलादि भोजन करते दर्शन करना।
सखियों के साथ वृन्दावनेश्वरी श्रीराधिकाजी का श्रीकृष्ण के प्रसाद का भोजन करते हुए दर्शन करना।
11.उनका अवशेष भोजन ग्रहण करना।
12.सखियों के साथ-साथ श्रीराधा-कृष्ण-युगल का मिलन-दर्शन करना तथा उनके ताम्बूल-सेवन और रसालाप आदि की माधुरी के दर्शन करते हुए आनन्द-लाभ करना।
13.सुकोमल शय्या पर श्रीयुगल को शयन कराना।
14.परिश्रान्त श्रीयुगल की व्यजनादि द्वारा सेवा करना और उनके सो जाने पर सखियों का अपनी-अपनी शय्या पर सोना। स्वयं भी वहीं सो जाना।
निम्नलिखित दिनों में श्रीकृष्ण की गोचारण-लीला और श्रीमती की सूर्य पूजा बंद रहती है-
1.श्रीजन्माष्टमी के दिन और उसके बाद दो दिनों तक।
2.श्रीराधाष्टमी के दिन और उसके बाद दो दिनों तक।
3.माघ की शुक्ला पंचमी अर्थात वसन्तपंचमी से फाल्गुनी पूर्णिमा अर्थात दोल पूर्णिमा पर्यन्त 26 दिनों तक।
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