हित रस और श्यामसुन्दर भाग 5
गोपीजनों का प्रेम श्रीकृष्ण की सौन्दर्य- गरिमा के कारण प्रेमाभक्ति बन गया था; निकुंज- विथियों में और की रूप-गरिमा के कारण श्यामसुन्दर का प्रेम प्रेमाभक्ति बना है। श्रीमद्भागवत में तथा कृष्ण –भक्त कवियों की रचनाओं में श्री कृष्ण ने गोपियों के प्रति भी अत्यन्त दैन्य और अधीनता प्रकट की है, किन्तु गोपीजनों के सामने वे अपनी कृतक्षता के प्रकाशन के लिये दीन बने हैं। वे गोपीजनों के प्रेम के अधीन हैं, किन्तु यह अधीनता उस अधीनता से भिन्न है जो अपनी विवशता के कारण होती है। नित्य प्रेम-विहार में श्री राधा के प्रति अपने अपार अनुराग से विवश बनकर वे अधीन बने हैं। यह दैन्य उतना ही निर्व्याज, निर्हेतुक और सहज है जितना गोपी-जनों का उनके प्रति।
श्याम सुन्दर की उपरोक्त दोनों स्थितियों को सहचरि सुख जी ने बड़े रोचक ढ़ंग से व्यक्त किया है। अपने एक वसंत के पद में वे कहते हैं, ‘जो ‘रसिक छैल’ अपनी छांह तक किसी को नहीं छूने देते थे, वे अब श्रीराधा की छांह छूना चाहते हैं और छू नहीं पाते। रस की दल- दल में फंस कर वे अपने सारे उत्पात भूल गये हैं। नित्य- विहार में, सखियों ने उनका श्रीराधा के रंग में इस प्रकार रंग दिया है कि उस रंग से उन्होंने सारे व्रज को रंग डाला है।
छांह दुवन नही देत हुते अब चाहत छांह छुवन नहिं पावत,
रस चहले फंसि भूले फैल।
सहचरि सुख वारी ललिता ने एसे रंगे राधे के तरन सौं,
रंगत चले सब व्रज की गैल।।
‘व्रज की गैल’ के पदकर्ता का तात्पर्य श्रीकृष्ण और गोपी जनों की, जिनमें श्री राधा भी सम्मिलित हैं, उन व्रज-लीलाओं से है जिनमें श्री कृष्ण उपास्य हैं और गोपियां उपासक हैं। इन लालाओं से भिन्न राधा- श्यामसुन्दर की वे एकान्त लीलायें हैं, जिनमें श्री कृष्ण के प्रति कान्त- भाव रखने वाली किसी अन्य गोपी का प्रवेश नहीं है। यह लीलायें ‘निकुंज’ की लीलायें कहलाती हैं। इनमें श्याम सुन्दर उपासक हैं और श्रीराधा उपास्य हैं। राधा वल्लभीय सिद्धान्त में परात्पर प्रेम के प्रागट्य की जो चार भूमिकायें मानी गई हैं, उनमें से प्रथम भूमिका से संबंधित लीला ‘निकुंज- लीला है और द्वितीय भूमिका से संबंधित लीला ‘व्रज- लीला’ है। व्रज की लीलायें निकुंज- लीलानुसारिणी तो नहीं होतीं किन्तु निकुंज में श्याम सुन्दर जिस अद्भुत प्रेम- रंग जाते हैं, वही उनकी व्रज- लीलाओं को रंगीन बनाता है।
प्रीति का यह स्वभाव है कि वह प्रेम पात्र में स्थिर होते ही उससे सम्बन्धित जड़- चेतन वस्तुओं में बड़े वेग के साथ संक्रमित हो जाती है और प्रेम पात्र से भी अधिक प्रियता प्रेम पात्र से सम्बन्धित वस्तुओं में हो जातीहै। लोक में प्रीति का उल्लास विरहावस्था में अधिक देखा जाता है और यहां उसी समय उसका यह नैसर्गिक गुण अधिक स्पष्ट होता है। नित्य विहार में, जहां देखना ही विरह के समान है, प्रीति का यह लक्षण संयोगावस्था में प्रकट रहता है। ध्रुवदासजी बतलाते हैं कि ‘जहां प्रियतमाचरण रखती हैं, नंद नंदन उस जगह को देखते रह जाते हैं। हे सखी, रसिक शिरोमणि के बिना इस सुख को कौन समझ सकता है ? उस जगह को देख कर उनके दोनों नेत्र भर आये हैं और वह नेह के बस होकर झूम रहे हैं। उनको सोच यह है कि जहां प्रिया ने चरण रखे हैं वहां मेरे प्राणों की भूमि क्यों न हुई?
धरित भांवती पग जहां रहत देखि तिहि ठौर।
को मुझसे यह सुख सखी विना रसिक शिरमौर।।
भरि आये दोउ नैन जहं रहे नेह वस झूमि।
तिहि-तिहि ठां काहे न भइ इन प्राणनि की भूमि।।[1]
कभी अपनी प्रियतमा के साथ बन- विहार करते हुए वे देखते हैं कि वृन्दावन के पत्र- फूलों की ओर प्रिया अत्यन्त स्नेह भरी दृष्टि से देख रही हैं। ‘वे प्रीति से व्याकुल होकर उन पत्र- फूलों का अपने नेत्रों से इसलिये स्पर्श करते फिरते हैं कि उनके प्राण प्रिया के हृग- छटा से उनका सिंचन हुआ है।’
नैननि छ वावत फिरत पिय पत्र फूल बन जेत।
प्राण प्रिया हृग-जल सींचे सखि यह हेत।।[2]
ध्रुवदासजी कहते हैं ‘जहां प्रियतम रहता है उस देश का पवन प्रिय लगता है, प्रेम की छटा को जाने बिना कोई इस सुख को नहीं समझ सकता।’
जहां प्रियतम तिहिं देश की प्यारी लागत पौन।
प्रेम-छटा जाने बिना यह सुख समुझै कौन।।
क्रमशः ... । जयजय श्यामाश्याम ।
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