__प्रेम __
प्रेम क्या है ? प्रेमी कौन है ? प्रेमी भक्त की क्या जीवन स्थिति होती है ? किन्ही प्रेमियों के संग से ही जान पाते हैं
प्रेमी तो है ही नहीं । जब प्रेम हुआ ,वो रहा क्या ? वो तो रहता ही नहीं |गया समझो , प्रेम किया की गया |हो गया समर्पित |हो गया मस्त |अब क्या रह गया सोचने को |जब कह दिए की आपके हैँ तो भी कुछ सोचना ,ये प्रेमी नहीं करता |वो तो निश्चिन्त हो गया |एक अलौकिक मस्ती है उसमें |एक समर्पण |अहंकार शून्यता |बन गया वो एक वृक्ष । जहां कभी गए तो ख़ाली नहीं लौटोगे |भर देगा तुम्हें ,अपने फल फूल सुंगंध से| तपते हुए जाओगे तो उसकी छाया में आनन्द पाओगे। जो लेकर गए उसके पास सब रख लिया उसने और भर दिया तुमको केवल प्रेम से|ऐसे प्रेमी ईश्वर के कितने समीप रहते |उनकी आभा वाणी सब ईश्वरीय हो जाती। क्या उनके प्रेमी उनसे अभिन्न हो सकते ? नहीं उनके हुए तो उनसे ही हो गए । कभी किन्ही प्रेमी के संग में ये सब अनुभव किया जा सकता है ।
प्रेमी को ज्ञान की कोई आवश्यक्ता ही नहीं । प्रेम सब ज्ञान से भर देता । ज्ञानी होने का भाव भी अभिमान से भर देता है |प्रेमी सर्वथा अभिमान शून्य है। कभी कभी ये भी स्थिति हुई की प्रेमी को ये भी बोध नहीं की उसने प्रेम भी किया है ? उसे कभी प्रेम भी हो सकता है ? वो तो सदा अयोग्य ही अनुभव करता |क्योंकि अहंकार ही नहीं उसमें |ये भी प्रेम की एक दिव्य स्थिति की प्रेमी को प्रेमी होने का भी बोध नहीं ।
ऐसे महाप्रेमियों पर तो भगवान भी सदा सदा बलिहार । इनका संग ही पावन कर देता है । अद्भुत समर्पण इनका |कृपा से कई प्रेमियों का मिला है जिनका जीवन ही प्रेम है। इनका संग मिलना भी साक्षात् प्रभु कृपा है। ऐसे प्रेमी भक्तों को हृदय से वन्दन।
श्री राधे
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