सहचरी भाग 3
इस उन्मत्त प्रेम- विहार में ऐसे अवसर भी आ जाते हैं, जब सदैव सावधान रहने वाली सहचरी- गण के ऊपर भी प्रेम का समुद्र फिर जाता है और वे मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ती हैं। इस प्रकार के एक प्रसंग का वर्णन करते हुए ध्रुवदासजी बतलाते हैं, ‘एक बार प्रियतम की अद्भुत प्रेम- गति को देखकर प्रिया अपने सहज वाम- स्वभाव को भूल गईं और उनके बड़े- बड़े नेत्र जल- पूरित हो गये। उन्होंने ‘लाल- लाल’ कहकर अपने प्रियतम को हृदय से लगा लिया और उनके ऊपर प्यार की वर्षा कर दी। प्रिया- प्रेम के गंभीर सागर को अमर्याद उमड़ते देखकर सखीगण विवश बन गई। उनमें से कुछ चित्र की भांति खड़ी रह गई, कुछ भूमि पर गिर पड़ीं और कुछ के नेत्रों से नेह-नीर उमड़ चला।
प्रीतम की प्रेम-गति देखैं भूली तन-गति,
बड़े-बड़े नैना दोऊ आये प्रेम जल भरि।
प्रिया लाल-लाल कहिं लये लाइ उरजन,
चूंमि- चूंमि नैना रही अधर दसन धरि।।
हितध्रुव सखी सब देखत बिबस भई,
प्रेम-पट नाना रंग झलकै सबनि पर।
एक चित्र की सी खरीं, एक धरनि खसि परीं,
एकनि के नैननि ते गिरे नेह-नर ढ़रि।।
सखियों की यह गति देखकर राधा- मोहन उनके पास आकर खड़े हो जाते हैं और उनकी ओर करुणा पूरित नेत्रों से देखते हैं। वे उनके हृदयों में अमृत की सी धारा खींचकर उनको बल पूर्वक प्रेम- सिन्धु के भंवर से निकालते हैं। युगल को घेरकर खड़ी हुई, महारस रंग से भरी सखियों के नेत्र तृषित चकोरों की भांति युगल की रूप- माधुरी का पान करने लगते हैं। इस प्रेम विहार में क्षण- क्षण में जल के से सहज तरंग उठते रहते हैं और वहां यही खेल-रात-दिन होता रहता है।
सखीनु की गति हेरे, ठाड़ै भये जाइ नेरें,
करुना के चितयौ दुहूंनि तिन ओर री।
अमी की सी धारा उन सींचि गये सबनि के,
प्रेम सिन्धु भौंर तैं निकासी बरजोर री।।
चहूं दिस राजै खरी, महा रसरंग भरी,
नैननि की गति बहै तृषित चकोर री।
सहज तरंग उठै जल केसे छिन-छिन,
हितध्रुव यह खेल तहां निसिभोर री।।
सखियों के जीवन का एक मात्र तात्पर्य युगल को सुख देना है। सुख देने की अभिलाषा सेवा द्वारा पूर्ण होती है। सखीगण स्व-सुख-वासना शून्य सेवा की मूर्ति है। उनकी सेवा का प्रयोजन सेवा ही है। ‘उनके मन में सेवा का अगाध चाव भरा रहता है और वे सेवा करती हुई चारों ओर ‘चकडोर’ सी घूमा करती हैं। वे युगल के श्रृंगार की नई- नई सामग्री बनाती रहती हैं और तनिक भी नहीं थकतीं। प्रेम के रंग में रंगी हुई वे युगल को अतृप्त भाव से सदैव निखरती रहती हैं। उनको अन्य सब स्वाद फीके लगते हैं, वे एक मात्र युगल के रूप-छत्र की छाया में रही आती हैं।’
सखी चहुंओर फिरै चकडोर-सी सेवा कौ भाव बढ़यौ मन माहीं।
सौंज सिंगार नई-नई आनत बानत नैकहुं हारत नाहीं।।
प्रेमपगी तिहि रंग रंगी निरखैं तिनकौं तनकौं न अघाहीं।
और सबाद लगैं ध्रुव फीके, रहैं विवि रूप के छत्र की छांही।।[1]
सखागण चार भावों से युगल की सेवा करती हैं, पुत्रवत् भाव से, मित्रवत् भाव से, पतिवत् भाव से और आत्मवत् भाव से।
निसिदिन लाड़ लड़ावहीं अति माधुर्य सुरीति।
पुत्र,मित्र, पति, आत्मवत् उज्जवल तत्सुख प्रीति।।
क्रमशः जय जयश्यामाश्याम ।।
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