भगवती कात्यायनी द्वारा -चीर-हरण
व्रज मैं प्रत्यक्ष न रहूँ तो प्रत्यक्ष रहने को स्थान कहाँ प्राप्त होगा मुझे। पौर्णमासी के रूप में मैं प्रत्यक्ष रहती हूँ पृथ्वी पर व्रज में; किंतु यह प्रत्यक्ष रहना जहाँ अनन्त सौभाग्य दान करता है, अपार संकोच में भी डालता है। अब परम पुरुष की स्वरूपभूता साक्षात आह्लादिनि शक्ति अंक में बैठकर जब अपने नलिनदलायुत नैत्रों में अंश्रु भरकर पूँछती है- 'अम्ब! क्या करूँ!' मैं क्या कह दूँ उनको। मेरा यही अहोभाग्य कि मुझे उनका पाद-स्पर्श प्राप्त होता है। वे मेरे अंक में बैठती हैं। उनका भेलापन- उनकी सभी सहेलियाँ तो शील, सौन्दर्य एवं सहज भोलेपन की मूर्तियाँ हैं।
श्रीकीर्तिनन्दिनी को कैसे विश्वास दिलाऊँ कि उन महाभाव-स्वरूपा के स्मरण से मानव-अन्तःकरण में श्रीकृष्ण-प्रेम का आलोक उदित होता है। वे मानती ही नहीं कि उनमें प्रेम-लेश भी है और वे श्रीनन्दन उनके सदा इंगित परतन्त्र हैं। अब मैं क्या साधन सुझा सकती हूँ। श्रीकृष्ण साधन-साध्य हों तो कोई साधन का निर्देश करे। ये सर्वतन्त्र स्वतन्त्र केवल अपनी कृपा से ही प्राप्त होते हैं अपने किसी स्वजन की कृपा से।
बालिकाएँ बहुत व्याकुल हो गयी हैं- विशेषतः नन्द-व्रज की बालिकाएँ। उनकी आशंका उचित है- दूसरे दूरस्थ व्रजों के गोपनायकों की कन्याएँ कुछ आशा भी रख सकती हैं; किंतु अपने ही व्रजराजकुमार वर-रूप में पाने की तो सम्भावना भी नहीं बनती।
नन्दनन्दन पिता को वरुणलोक से लौटा लाये और समस्त गोपों-गोपियों को उन्होंने ब्रह्म-साक्षात्कार करा दिया। गोलोक-वैकुण्ठ के दर्शन करा दिये। सबको स्वप्न कहकर गोप नहीं टाल पाते, इसमें आश्चर्य क्या। अब सबके मुख पर एक ही चर्चा है- 'व्रजराजकुमार साक्षात श्रीहरि हैं।' इस चर्चा ने बरसाने की बालिकाओं को भी व्याकुल बना दिया है। 'श्रीहरि- वे सिन्धु-सुता का वरण करेंगे। देव, गन्धर्व-नाग, त्रिभुवन में कोई कन्या उन्हें अलभ्य नहीं। हम ग्राम्या, अशिक्षिता गोप-कन्याओं के लिये कहाँ आशा रह गयी।'
पौर्णमासी का ही आश्रय लेती हैं ये बालिकाएँ अपने प्रत्येक प्रश्न को सुलझाने के लिये। पौर्णमासी इनका प्रत्यय कैसे भंग करें? इनका विश्वास- इनकी प्रतीति- क्या करे पौर्णमासी? श्रीनन्दनन्दन की कृपा ही अवलम्ब है। उन्होंने ही मर्यादा बनायी है अपने लोक में कि मधुर भाव को लेकर उनकी लीला में, उनकी निकुञ्ज लीला में प्रवेश के लिए कात्यायनी की-ललिता की अनुमति अपेक्षित है। इसी विधान का आश्रय लेकर पौर्णमासी ने बालिकाओं को अपनी-कात्यायनी की ही आराधना निर्दिष्ट कर दी है।
नन्दव्रज-व्रहत्सानुपुर की सब बालिकाओं ने कार्तिक पूर्णिमा से ही व्रतारम्भ कर दिया है। श्रीवृषभानुनन्दनी ने भी माता से अनुज्ञा प्राप्त कर ली है। बालिकाएँ जब कहती हैं कि 'उनको भगवती पूर्णमासी ने उपासना निर्दिष्ट की है, इसमें कोई पुरुष अथवा बड़ी नारी साथ नहीं जा सकतीं, केवल कुमारियाँ ही जायँगी।' तब माताएँ चाहे जितनी व्यथित हों, आराधना में बाधा तो नहीं दे सकतीं।
क्रमशः ...
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