Tuesday, 5 July 2016

भगवती कात्यायनी द्वारा चीर-हरण लीला भाग 3

भगवती कात्यायनी द्वारा चीर-हरण लीला
भाग 3

बालिकाएँ परस्पर एक दूसरी की पूजा देखती हैं, अनुकरण करती हैं। कभी किसी को सावधान भी कर देती हैं- 'कण्ठसूत्र पहिले, फिर नैवेद्य और तब ताम्बूल!' इनकी पूजा में पदार्थों के अर्पण का क्रम प्रतिदिन कुछ परिवर्तित होता रहता है। मुझे अत्यन्त प्रिय है इनका यह परिवर्तन।

पूजा पूर्ण करके सब अञ्जलि बाँधकर नेत्र बन्द करके स्तुति करती हैं-

'कात्यायनि महामाये महायोगियन्धीश्वरी।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः।।'[1]

यही इनका पूजा-मन्त्र, यही इनकी प्रार्थना। मैं क्या करूँ? मुझ पर मर्यादा का अंकुश न होता- मैं पहिले ही दिन पूजा से भी पूर्व प्रत्यक्ष हो जाती और इनमें-से प्रत्येक के पाद-पल्लव पकड़कर प्रार्थना करती- 'तुम इस अपनी सेविका को आदेश देकर सनाथ करो स्वामिनी! लेकिन यह मैं करूँ तो इनकी ही अनुग्रह-भाजना नहीं रहूँगा। मुझे मौन यह सब देखना, सुनना है।

कितनी श्रद्धा, कितना सहज विश्वास इनका- इसमें-से प्रत्येक पहिले ही दिन नेत्र बन्द करके प्रार्थना करते समय यही समझती भी कि नेत्र खोलते ही उसे कात्यायनी प्रत्यक्ष दर्शन देंगी और 'वरं ब्रूहि' कहेंगी। इनकी श्रद्धा शिथिल होना नहीं जानती। इनका विश्वास अडित बना है- 'आज पूजा में कुछ त्रुटि रह गयी। भगवती कल अवश्य दर्शन देंगी।

एक-एक दिन किन्तु पूरा मार्गशीर्ष मास व्यतीत हो गया। आज मार्गशीर्ष पूर्णिमा है। आज इनकी पूजा का अन्तिम दिन है। आज इनका दृढ़ विश्वास है कि- 'भगवती अवश्य प्रत्यक्ष प्रगट होकर वरदान देंगी।'

व्याकुल तो आज मैं हूँ। प्रार्थना कर रही हूँ। मेरी लज्जा, मेरी उपासना की लज्जा आज नहीं रहती तो कौन कभी कात्यायनी को पूछेगा। जो क्रोध करके कुछ बिगाड़ न सके, जो कृपा करके अभीष्ट प्रदान न कर सके, उसका देवत्व किस काम का? किंतु इनका अभीष्ट- मैं भी इनके उन्हीं इष्ट की चरणाश्रिता हूँ। मैं भी पुकार ही सकती हूँ- मेरे नाथ! इस किंकरी ने महीने भर आपकी अभिन्न सखियों की अविचल श्रद्धा-सहित अर्पित सेवा स्वीकार की है। अब आप इसकी मर्यादा रखें तो रहे।'

करुणार्णव कृष्णचन्द्र के चरणों में पहुँची प्रार्थना असफल नहीं हुआ करती। मेरी पुकार मेरे प्रभु ने सुन ली। वह क्या गूँज रहा है उनका शृंगनाद। आज अग्रज को नहीं आना है गोचारण करने, इसलिये ही श्रीनन्दनन्दन शीघ्र उठ गये हैं। मैया से त्वरा करने को कहकर स्वयं शृंगनाद करके सखाओं को पुकारने लगे हैं।

'तू कितनी भी शीघ्रता कर ले, मेरी बहिन से पहिले नहीं उठ सकता!' श्रीदामा ने नन्दभवन से निकलते श्रीकृष्णचन्द्र को हँसकर अंकमाल दी और सुना दिया।
क्रमशः ...

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