Sunday, 10 July 2016

अखिल रसामूर्ति भगवान श्रीकृष्ण

अखिल रसामूर्ति भगवान श्रीकृष्ण

भगवान के अनेक विभिन्न अवतार होते हैं - पुरुषावतार, लीलावतार, गुणावतार, मन्वन्तरावतार, युगावतार, आवेशावतार, कल्पावतार, कलावतार, अर्चावतार आदि। और भगवान स्वरूपतः नित्य-सत्य-परिपूर्णतम होने के कारण उनका प्रत्येक रूप ही नित्य, शाश्वत, सच्चिन्मय,, हानोपादानरहित, परानन्द-संदोह और पूर्णतम है; तथापि लीला की दृष्टि से शक्ति के प्रकाश के तारतम्यानुसार भेद दिखायी देता है।
पर जब भगवान स्वयं अपने पूर्णरूप में प्रकट होते हैं, तब वे सर्वावतारमय होते हैं। स्वयं-भगवान श्रीकृष्ण प्रतिकल्प में स्वयंरूप में प्रकट होते हैं और वे प्रकट होते हैं मधुर मनोहर नर-वपुरूप में। इसी से भगवान के सर्वभूतमहेश्वर सर्वरूप के तत्त्व को न जानने वाले मूढ़लोग भगवान के इस मानुष रूप को देखकर उनको पान्चभौतिक-देह-विशिष्ट मनुष्य मान लेते हैं -

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।
वास्तव में स्वयं भगवान की यह नराकृति नरलोक के नर-शरीरों के आदर्श पर बनी हुई नहीं है, यह नित्य है। वस्तुतः ‘भगवद्देह के आदर्श पर नर-शरीर का निर्माण है। भगवान का शरीर दिव्य, अप्राकृत, देह-देहि-भेद से रहित, जन्म मृत्यु से रहित, सर्व-कारण-कारण, नित्यसिद्ध, निर्विकार, अनादि, सर्वादि, सच्चिदानन्दघनस्वरूप है। और नरलोक का नर-शरीर रक्त-मांसादि से गठित, खण्डित, जन्म-मृत्युशील, पन्चभूतनिर्मित, आत्मा (देही) और देह के भेद से युक्त तथा विनाशी है। भगवद्विग्रह स्वेच्छामय विशुद्ध भग्वत्स्वरूप है -

स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि।
उसका प्रारब्ध-परवश निर्माण, कर्मभोग तथा विनाश नहीं होता; वह नित्य, सत्य, सनातन तथा दिव्यकर्मा है। भग्वत्स्वरूपा प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी ही स्वरूपभूता लीलारूप माया से प्रकट और अप्रकट होता है।
तन्त्रशास्त्र में कहा गया है -
निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रो
निश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीनः।
आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः
सर्वत्र च स्वगतभेदविवर्जितात्मा।।
भगवान का दिव्य शरीर मोह, तन्द्रा, भ्रम, रूक्षता, काम, क्रोध, असत्य, आकांक्षा, आशंका, रोग, जरा, भय, विभ्रम, विषमता, परापेक्षा, परिवर्तनशीलता, अनित्यता, विनाश आदि दोषों से सर्वथा रहित तथा सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, सत्यविज्ञानानन्दरूपता, सर्वैश्वर्य, असमोर्ध्व माधुर्य आदि गुणों से परिपूर्ण है। वह काल-कर्मादि के अधीन नहीं है, पान्चभौतिक शरीर के जडत्व आदि से रहित है; उसके हाथ, पैर, मुख, उदर आदि सभी एकमात्र दिव्य - चिन्मयानन्दरूप हैं। और उसमें - वृक्ष में पत्र-पुष्प-फलादि की भाँति स्वगत, दूसरे फल के वृक्ष के रूप में सजातीय तथा शिला आदि के रूप में विजातीय भेद नहीं है; वह केवल भगवद्रूप ही है।
भगवान के अवतार के तीन हेतु माने गये हैं - ‘साधुओं का परित्राण’, ‘दुष्कृतकारियों का विनाश’ और ‘धर्म का संस्थापन’। स्वयं-भगवान के इस स्वयंरूपावतार में अन्यान्य अवतारी रूपों का समावेश होने के कारण भगवान के द्वारा पापात्मा राजाओं के रूप में प्रकट असुरों का, अन्यान्य विविध रूपों में प्रकट असुरों का तथा उनके अनुगामी आसुर-भावापन्न दुष्कृतकारियों का विनाश, इन सब क्रूरकर्मा दुराचारपरायण दृष्ट प्रकृति वालों के द्वारा सताये हुए सदाचारी साधु-प्रकृति पुरुषों का परित्राण और जघन्य पापप्रवृत्तिमय असुर-मानवों के द्वारा प्रचारित अधर्म का विध्वंस करके विशुद्ध सनातन धर्म का संस्थापन - ये तीनों मंगलमय महान कार्य सुसम्पन्न होते हैं - इसमें कोई संदेह नहीं। अतएव जो लोग इस निमित्तों से भगवान का अवतरित होना मानते हैं, वे ठीक ही मानते हैं।
(वैसे भगवान किसी को दुष्ट अपनी और से नही कहते , साधु-सन्त-भक्तों को जो कष्ट देते है उन्हें ही वह दुष्ट कहे है , मुख्य कारण तो अपने प्रेमियों से मिलन है , दूसरा कारण दुष्टों का विनाश भी पहले कारण से है क्योंकि भक्तों हेतु आ ही गए तो क्यों न उन्हें सताने वालों को भी देख लिया जाएं और दुष्टता के विनाश से स्वतः धर्म संस्थापन हो जाता है , मुख्य पहला कारण है उनके आगमन का साधु परित्राण ... )
परंतु स्वयं-भगवान का परिपूर्ण स्वयंरूपावतार युगावतारों की भाँति केवल धर्मग्लानि और अधर्म की वृद्धि होने पर साधु-परित्राण, दुष्ट-विनाश और धर्म-संस्थापन के लिये ही नहीं होता। वह तो उनके निज प्रेम-स्वरूप-वितरण के लिये - स्वरूपानन्द-आस्वादनरूप विनोद के लिये ही होता है। इसी से श्रीमद्भागवत में ब्रह्मादि देवताओं ने श्रीदेवकी-गर्भ-स्तुति में कहा है -

न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं
विना विनोदं बत तर्कयामहे।
भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया
कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयात्मनि।।[1]
इसका भावार्थ यह है कि ‘हे ईश - सर्वनियन्ता! आप अजन्मा हैं। आपके इस दिव्य जन्म का हेतु विनोद (स्व-स्वरूपानन्दास्वादन) के सिवा अन्य कुछ भी नहीं हो सकता। (जगत् की सृष्टि, स्थिति, लय आदि आपके इस आविर्भाव में हेतु नहीं हैं;) क्योंकि आप सर्वाश्रय हैं। आपकी आश्रिता मायाशक्ति के द्वारा ही ब्रह्मा-रुद्र आदि आपके गुणावतार इन कार्यों को सम्पन्न करते रहते हैं। आप अभय हैं। आपके नाम-कीर्तन-समरणाभास से ही कंस आदि असुरों के भय से पूर्णतया रक्षा हो सकती है। इन असुरों का वध करके धर्म-संस्थापन करने के लिये आपके स्वयं आविर्भूत होने की आवश्यकता नहीं है।’

अतएव इस दृष्टि से उपर्युक्त ‘साधु-परित्राण’, ‘दुष्कर्मियों के विनाश’ और ‘धर्म-संस्थापन’ का एक दूसरा रूप होता है और उसी के लिये स्वयं-भगवान का अवतरित होना प्रेमी भक्तगण मानते हैं - स्वयं-भगवान अपने इस अखिल-रसामृत-मूर्ति, अचिन्त्य-अनिर्वचनीय-परस्पर-विरुद्ध-गुण-धर्माश्रयस्वरूप, घनी-भूत परमप्रेमानन्द-सुधामय मधुर मनोहर दिव्यातिदिव्य चिन्मय नित्य लीला-विग्रह का दर्शन-दान करके उन साधुओं का परित्राण करते हैं, जो अपने परम प्रियतम भगवान के नित्य मंगलमय, दिव्य प्रेम-रसमय और परमानन्द-रसमय दर्शन की तीव्रतम उत्कण्ठा से अतुलनीय विरह-वेदना का अनुभव कर रहे हैं और अपने जीवन के एक-एक पल को भीषण विरहानल की भयानक ज्वाला से दग्ध होते बिता रहे हैं। यही उनका साधु-परित्राण है।

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