Thursday, 14 July 2016

अखिल रसामूर्ति भगवान श्रीकृष्ण

स्वयं-भगवान उन दुष्कृतकारियों के, उन परम सौभाग्यशाली असुरों के देह का वियोग करके उन्हें सहज ही अपने ऋषि-मुनि-योगि-दुर्लभ दिव्य परम कल्याणरूप परमधाम में पहुँचा देते हैं, जो केवल भगवान के ही मंगलमय दिव्य कर-कमलों द्वारा देहत्याग करके भगवान के दिव्यधा में पहुँचने के अधिकारी बन चुके हैं। भगवान के स्वहस्त से निहत होकर वे सदा के लिये पृथ्वी का परित्याग करके भगवद्धाम में चले जाते हैं, अतएव वस्तुतः इसी से पृथ्वी का भार-हरण होता है। भगवान का यह ‘निग्रह’ भी ‘परम अनुग्रह’ रूप होता है। इसमें भगवान उन असुरों का वध नहीं करते, परंतु स्व-स्वरूप-दान करके उन्हें कृतार्थ करते हैं। यही दुष्कर्मियों का विनाश है।
एवं धर्म-संस्थापन का अभिप्राय यह है कि भगवान उस काम-कलुषित मोह-विजृम्भित विषय-सेवन रूप अधर्म के अभ्युत्थान का ध्वंस करके भुक्ति-मुक्ति की वान्छा के सहज सर्वत्याग से सुसम्पन्न, परम उत्कृष्ट, असमोर्ध्व मधुर, विशुद्ध गुणातीत प्रेमधर्म की स्थापना करते हैं।
स्वंय-भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण ऐश्वर्यस्वरूप हैं। वे सर्वरसमय हैं। उन पूर्णैश्वर्यमय भगवान में जो माधुर्य है, वह पूर्णैश्वर्यमय स्वरूप में ही भग्वत्स्वरूप मधुरता की नित्य अभिव्यक्ति है। ऐश्वर्यरहित मधुरता वास्तविक माधुर्य नहीं है। वह तो आपात मधुर विष-सदृश है (अग्रेऽमृतोपमं परिणामे विषमिव।) नराकृति सच्चित-माधुर्यरूप भगवान में और विषयगत मिथ्या-माधुर्ययुक्त मनुष्य में सभी कुछ भिन्न है। भगवान का माधुर्य सत्य, अप्राकृत, चिदानन्दघन है और मनुष्य का माधुर्य मिथ्या, प्राकृत - जड और विनाशमय है।

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