Friday, 1 July 2016

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 6

हित रस और श्‍याम-सुन्‍दर भाग 6

हित प्रभू ने अपने श्रीराधा सुधानि‍धि स्‍तोत्र को प्रेम की इस छटा के साथ ही आरंभ किया है। ग्रन्‍थ के प्रथम श्‍लोक में वे वृषभानु- नंदिनी की वंदना करते हुए कहते हैं ‘जिनके नीलांचन के अनायास हिलने से उठे हुए धन्‍यातिघन्‍य पवन का स्‍पर्श पाकर, योगीन्‍द्रों के लिये अति दुर्गम गति मधु-सूदन अपने आपको कृत कृत्‍य मानते हैं मैं उन वृषभानु-नंदिनी की दिशा को भी प्रणाम करता हूं।'

यस्‍या कदापि बसनांचल खेलनोत्‍थ-
धन्‍यातिघन्‍य पवनेन कृतार्थ मानी।
योगीन्‍द्र दुर्गम गतिमंधुसूदनोअपि-
तस्‍या नमोस्‍तु वृषभानु भुवोदिशेअपि।।[1]

प्रेम पात्र से सम्‍बन्धित वस्‍तुओं के असाधारण महत्‍व को प्रदर्शित करने के लिये हितप्रभु ने ग्रन्‍थ के पहिले श्‍लोक में वृषभानु नंदिनी की दिशा को नमस्‍कार करके दूसरे श्‍लोक में उनकी सर्वातिशायी महिमा को एवं तीसरे और चौथे श्‍लोक में उनकी रस- काम- धेनु –स्‍वरूपा चरण-रेणु को प्रणाम किया है। पांचवे श्‍लोक में स्‍वयं श्रीनिकुंज देवी की वन्‍दना की है। प्रिय से सम्‍बन्धित वस्‍तुओं के साथ जब श्‍यामसुन्‍दर के प्राणों की इतना गहन सम्‍बन्‍ध है तो जिन दासियों के ऊपर प्रिया की करुणा और ममता है, उनके तो यह रसिक शेखरदास हैं श्री ध्रुवदास जी कहते हैं ‘प्रियतम की प्रीति की रीति को सुनकर हृदय में उल्‍लास होता है। प्रियतम की जितनी दासी हैं उनके वे दास बने हुये हैं।

पिय की प्रीति की बात सुनि हिय में होत हुलास।
दासी जहं लगि प्रिया की ह्रे रहे तिनके दास।।[2]

प्रेम मार्ग दासता एंव पराधीनता का मार्ग है किन्‍तु यह वह दासता है जिसकी वन्‍दना ईशता करती है। नंदनंदन ने इस घर में दासों का दास बन कर इस पदवी को अकल्‍पनीय उच्‍चता प्रदान कर दी है।
प्रिया के वस्त्राभूषणों के प्रति भी विहारी लाल का अमित आकर्षण है। उन वस्त्राभूषणों को धारण करने का चाव उनके चित्त में सदा बना रहता है। ‘उन पट- भूषणों को पहिनकर वे सहचरि का वेश बनाते हैं और अत्‍यन्‍त अनुराग पूर्वक हाथ में फूलों का पंखा लेकर प्रिया की सेवा में घूमते रहते हैं।'

ते पट-भूषण प‍हरि पिय, सहचरि कौ वपु बानि।
फिरत लिये अनुराग सौ, कुसुम बीजना पानि।।[1]

सखी वेश में उनका त्रिभुवन-विमोहन रूप और भी निखर आता है। स्‍वामी हरिदास जी उनकी इस विचित्रता पर आश्‍चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं, ‘हे श्‍याम किशोर जू, तुम्‍हारे अंग पर तुम्‍हारा पीतांवर एवं श्रीराधा की चूनरी समान रूप से खिलते हैं। तुमको ऐसा रूप कहां से मिला है, इस उधेड़-बुन में मैं रात-दिन पड़ा रहता हूं।

श्‍याम किशोर जू तुमकौं दोऊ रंग रंगित पीतांवर-चूनरी।
एसौ रूप कहां तुम पायौ अहनिंस सोच उधेरा-बूनरी।।[2]

अपने वस्त्राभूषणों के द्वारा घनश्‍याम के रूप में अभिवृद्धि होती देखकर श्रीराधा स्‍वयं उनकी वेश- रचना को पूर्ण बना देती हैं। वे हंसकर लाड़ सहित श्‍याम सखी के भाल पर सौभाग्‍य चिन्ह –बैंदी- लगाती हैं और अपनी बेसर उनको पहिना देती हैं। श्‍याम सुन्‍दर के मन में मोद बढ़ जाता है और उनके मुख पर नई रूप-छटा चढ़ जाती है। श्री राधा ओर सखीगण उनकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखते रह जाते हैं।
जय जय श्यामाश्याम जी । क्रमश ...

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