सहचरी भाग 4
सखीगण चार भावों से युगल की सेवा करती हैं, पुत्रवत् भाव से, मित्रवत् भाव से, पतिवत् भाव से और आत्मवत् भाव से।
निसिदिन लाड़ लड़ावहीं अति माधुर्य सुरीति।
पुत्र,मित्र, पति, आत्मवत् उज्जवल तत्सुख प्रीति।।
प्रतिदिन प्रात:काल युगल को जगाते समय सखियों की अद्भुत प्रीति वात्सल्य से रंजित हो जाती है। उन्मद प्रेम विलास का समस्त रात्रि उपयोग करने के बाद अरुणोदय से कुछ पूर्व राधामोहन शयन कुंज में पधारते हैं। शयन कुंज में केवल मुख्य सखियों को ही सेवा का अधिकार प्राप्त है। शेष सखियां बाहर रहकर दूसरे दिन की आवश्यक सेवाओं में व्यापृत रहती हैं और आकुलता पूर्वक दर्शनों की प्रतीक्षा करती रहती हैं। अरुणोदय होते ही वे ललिता आदि मुख्य सखियों से युगल को जगाने को कहती हैं- ‘जगाइ री भई बेर बड़ी’। सब मिलकर जगाने का संकल्प करती हैं, किन्तु प्रेमावेश से श्रमित नव- दंपति को किसलय-शय्या पर शयन करता देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आता है और वे कुछ देर के लिये उसी के आस्वाद में निमग्न हो जाती है। एक कहती है ‘हे सखी, जाहं रूप की चहल-पहल रहती है, उस रंग-महल के किवाड़ खोलकर तू युगल को जगा दे। पहपीरी हो गई है और मेरे नैन और प्राण युगल को देखे बिना व्याकुल हो रहे हैं। युगल के जागने पर मंद मुसकान रूपी धन मुझे मिलेगा और उनका गुणगान करती हुई मैं सेवा में प्रवृत्त हो जाऊंगी।’
अरबरात नैन-प्राण गौर श्याम देखे बिन,
सावधान करि उपाइ कहा फिरतिधीरी।
बलि-बलि बृन्दावन हित रूप सहित मुसिकनिधन,
पाऊं गुण गाऊं रहि टहल मांहि नीरी।।
दूसरी उत्तर देती है ‘हे सखी, तू थोड़ा धीरज रख। देख तो सही इन परम सुकुमारों को शयन किये अभी अधिक समय नहीं हुआ है। मैं तो यह चाहती हूं कि इस समय पवन मंद-मंद चले, रविजा प्रवाह रोक कर स्थिर हो जाय और पक्षीगण मौन धारण कर लें। जब तक यह दोनों रसिक शय्या का त्याग न करें, तब तक कमल न खिलैं और तारों की ज्योति क्षीण न हो। जब तक यह सचेत न हों भोर का समय भी चुपचाप निकल जाय!'
वारिज खिलौ न तौलौ, रहौ तारा जोति जौलौ,
उठै न रसिक दोउ जौलौं नींद लेते।
वृन्दावन हित रूप भौर हूं, भौरे ही जाउ,
जब लगि सोवत तै हौहिं न सचेते।।
इसी प्रकार युगल को भोजन कराते समय एवं विवाह- विनोद की रचना करते समय सखीगण वत्सल रंजित उज्जवल प्रीति का आस्वाद करती हैं। चाचाजी कहते हैं ‘सखीगण को नव-दंपति रूपी खिलौना मिल गये हैं और वे अपना मन उनको देकर उनका मन लिये रहती हैं। यह सांवल और गौर हंस- शावक वृन्दा- कानन रूपी छवि –सरोवर में क्रीडा करते रहते हैं। यह दोनों क्षण- क्षण में नये- नये प्रेम कौतुक करते हैं और सखीगण नेत्रों की ओक से लीलामृत का पान करती रहती हैं।’
क्रमशः ... जयजय श्यामाश्याम।।।
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