सहचरी भाग 2
सहचरी
सखियों को प्रेम के नेम तो स्पर्श नहीं करते किन्तु वे जीवन धारण उन्हीं का चयन करके करती है। ध्रुवदासजी कहते हैं, ‘युगल के नेत्रों की सैन और चपल चितपनि रूपी परम सुन्दर मोतियों को सखी-हंसनी नेत्र भर-भर कर चुगती रहती हैं,
नैन-सैन चितवनि चपल मनु मुक्ता छवि ऐन।
सखी सबै मनु हंसिनी चुगत हैं भरि-भरि नैन।
इस प्रकार, वृन्दावन- रस रीति में, सखियों का स्वरूप काव्य जगत् के सामाजिक से मिल जाता है। वे सामाजिक की भांति ही एकात्म– भाव से युगल के प्रेम- रूप का आस्वाद करती हैं किन्तु दोनों में बहुत बड़ा भेद यह है कि सखीगण युगल की प्रेम लीला की प्रयोक्तृ भी हैं। उनकी इच्छा राधा-माधव की रुचि के साथ इतने सहज भाव से अभिन्न बनी हुई है कि ध्रुवदासजी ने सखियों को युगल की ‘इच्छा-शक्ति’ कहा है। स्वभावत: युगल सखियों की इच्छा के अधीन हैं। ‘इच्छा शक्ति रूपी सखीगण संपूर्ण रसमय क्रीडाओं की प्रयोक्तृ हैं और वही सबके हृदय में क्रीडा के अनुरूप भाव उत्पन्न करती हैं,
करवावत सब ख्याल, इच्छा शक्ति सखी तहां।
उपजावत तिहि काल, भाव सबनि कै तैसोई।।
सखियों की लीला- प्रयोजकता का एक सरस उदाहरण हितप्रभु ने अपने एक पद में दिया है। ‘शिशिर और ग्रीष्म की संधि- रूपा वसंत ॠतु वृन्दावन में नित्य निवास करती है। वहां के जल, थल और आकाश में सदैव वासंती उल्लास भरा रहता है। वसंत- सखा कामदेव वहां की कुंजों को संवारते रहते हैं। श्यामाश्याम रात्रि के सुखमय विलास के बाद उनींदे उठे हैं। अनुराग के रंग से उनके तन-मन रंग रहे हैं। सखीगण उनको रंगमगे देखकर अनेक प्रकार के बाजे बजाने लगती हैं और बासुरी एवं मुखचंग पर गान की सरस गति का सूचन उनको कर देती हैं। श्यामाश्याम उस गति को पकड़ कर गौरी राग के अलाप के साथ ‘चांचरि’ गाने लगते हैं, और ‘हो-हो-होरी’ कहकर आनंद से पुलकित होने लगते हैं।[3] यहां सखियों ने वसंत-गान की गति का सूचक करके राधा-माधव की वसंत-क्रीडा का प्रवर्तन किया है। सखियों के वाद्यों में वही गान बजता है जो उस समय युगल के हृदयों में छाया होता है और युगल के हृदयों में वही गान छाया होता है जो सखियोंके वाद्यों में बजता है।
सखियों का सुख संपूर्णतया युगल के सुख के साथ बंधा है। हितप्रभु न उनको ‘हित-चिंतक’ कहा है। वे सदैव युगल के हित का चिंतन करती रहती हैं। उन का यह हित-चिंतन ही उनको सावधान बनाये रखता है, अन्यथा जहां यौवनमद, नेहमद, रूपमद, रसमद आदि उन्मत्त बनकर विनोद करते हैं, वहां मन-बुद्धि सहित सम्पूर्ण अस्तित्व का डूब जाना बहुत आसान है। उनके सामने उनके जीवनाधार युगल जब प्रीति विवश बनकर सुध-बुध खो देते हैं तब हितकारी सखियां, स्वयं अत्यन्त व्याकुल होते हुए भी, सावधान रहती है। वे जानती हैं कि युगल प्रेम की लहर में पड़कर विवश बन जाते हैं और मदन की लहर उठ आने पर सावधान बनते हैं। अत: वे उस समय मदन की लहर उठाने की चेष्टा करती हैं। और इस प्रकार से युगल का नित्य नवीन प्यार-दुलार कर के अपने प्राणों का पोषण करती हैं।
होत बिबस तबही पिय-प्यारी, सावधान तहांसखी हितकारी।
कुंवरि अधर पिय अधरनि लावैं, रुप वदन नैननि दरसावैं।।
पिय के कर लै उरज छ वाबै, मनौ मैन कौ खेल खिलाछु।
उर सौं उर मिलि भुजनि भरावैं,चरन पलोटि सेज पौढावैं।।
ऐसी भांति नव लाड़ लड़ावै, ताही सौ अपनौ जिय ज्यावैं।।
किन्तु, इस उन्मत्त प्रेम- विहार में ऐसे अवसर भी आ जाते हैं, जब सदैव सावधान रहने वाली सहचरी- गण के ऊपर भी प्रेम का समुद्र फिर जाता है और वे मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ती हैं। इस प्रकार के एक प्रसंग का वर्णन करते हुए ध्रुवदासजी बतलाते हैं, ‘एक बार प्रियतम की अद्भुत प्रेम- गति को देखकर प्रिया अपने सहज वाम- स्वभाव को भूल गईं और उनके बड़े- बड़े नेत्र जल- पूरित हो गये। उन्होंने ‘लाल- लाल’ कहकर अपने प्रियतम को हृदय से लगा लिया और उनके ऊपर प्यार की वर्षा कर दी। प्रिया- प्रेम के गंभीर सागर को अमर्याद उमड़ते देखकर सखीगण विवश बन गई। उनमें से कुछ चित्र की भांति खड़ी रह गई, कुछ भूमि पर गिर पड़ीं और कुछ के नेत्रों से नेह-नीर उमड़ चला। -- जयजय श्यामाश्याम । सत्यजीत तृषित ।
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