राधे राधे
"सहज सुगन्ध भाँति भाँति भाव-फूल बिछे
सम रस-नीति जामैं केसर कौ झोलना।
बिसद सुवास नाना विधिं सौं सँवारि रच्यौ
चौकसी गुननि गस्यौ गूढ़ गाँस खोलना।
राधा-मनमोहन विलास को सुहासन है
दोऊ एक दानक सलोने मिठ बोलना।
तन कहूँ क्यौं न बसौ बस न तनक मेरौ
मन ब्रजमण्डल को उड़न-खटोलना।
अर्थात
मेरा शरीर कहीं पड़ा रहे उस पर तनिक सा भी वश नहीं है। शरीर बीमार जर्जर शिथिल परबस होकर कहीं भी रह सकता है, किन्तु मेरा मन ब्रजमण्डल का उड़न खटोला बना रहता है जिस पर राधाकृष्ण निरंतर बिहार करतें हैं।
कवि कहता है मैंने अपने मन रूपी उड़न खटोले को ऐसा बना लिया है कि भाँति भाँति के भावों के फूल उस पर बिछे हैं। रस की रीति जिसमें सम बनी रहती है, अनुराग की तीव्रता कभी कम नहीं होती। यह रस रीति उस मन रूपी हिंडोले में लगी हुई केसर झूले(झालर) है। अपने मन रूपी हिंडोले को मैंने विशद सुगंधित नाना प्रकार से रच कर बनाया है। चारों ओर रस्सी के कसे हुये गुणों से भर कर ऐसा मन आसन बनाया है कि जिस पर बैठते ही मन की गूढ़ बातें, गाँठ भी खुल जातीं हैं। एक ही बानक, श्रृंगार- वेश में सजे हुये सलोने व मीठे से राधाकृष्ण के विलास के लिये मेरा मन सुन्दर सुखद आसन बन गया है। कवि के मन में पूरा बृजमंडल विद्यमान है और उसमें विराजमान हैं राधाकृष्ण।
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