लीलाननाम्बुज- मधीरमुदीक्षमाणं
नर्माणि वेणुविवरेषु निवेशयन्तम् ।
दोलायमान – नयनं नयनाभिरामं
देवं कदा नु दयितं व्यतिलोकयिष्ये
पारस्परिक संदर्शन के समय की अपरूप माधुरी श्रीमती के स्मृतिपथ पर समुदित हुई, तो श्रीकृष्णदर्शन के लिए उत्कण्ठा से अधीर श्रीमती राधारानी ने अपनी सखियों से जो कुछ पूछा, इस श्लोक में श्रीलीलाशुक ने उसी का अनुवाद किया है।
श्रीमती सखियों से बोलीं- ‘हे सखियों! उन्हीं लीलामय प्रियतम देव को मैं कब देखूँगी? वे मुझे निभृत कुञ्ज में भेजने के लिए देखेंगे, और मैं भी स्वीकृति ज्ञापनार्थ उन्हं देखूँगी।’ इस श्लोक में श्रीकृष्णमाधुरी के जो कुछेक विशेषण दिए गये हैं, वे बहुत से भावों के द्योतक हैं। श्रृंगारससिन्धु श्रीकृष्ण महाभावमयी राधारानी का वदनचंद्र देखते हैं, तो उनके श्रीअंग में और श्रीमुख पर विविध भावतरंगे प्रकाशित होती हैं।
“राधा-वदन-विलोकन-विकसित-विविध-विकार- विभंगम् ।
जलनिधिमिव- विधुमण्डल- दर्शन- तरलित-तुंग- तरंगम् ।।”[1]
राधारानी कहती हैं- श्रीकृष्ण का लीलाननाम्बुज कब देखूँगी? यहाँ ‘लीला’ का अर्थ है- नाना प्रकार का भावोद्गार। उसी भावोद्गार से युक्त मुखकमल के दर्शन की वासना। जैसे श्रीकृष्ण के दर्शनमात्र से राधारानी के ललितालंकार आदि कृष्ण मनोहारी भाव प्रकट होते हैं, वैसे श्रीकृष्ण के भी विविध भावविकार प्रकाश में आते हैं, जब वे भावालंकारों से अलंकृत श्रीमती को देखते हैं। श्रीमती के ललितालंकार-
“विन्यासभंगिरांगनां भ्रूविलासमनोहरा ।
सुकुमारा भवेद् यत्र ललितं तदुदीरितम् ।।”[1]
‘जिससे अंगसमूह की विन्यासभंगिमा, सौकुमार्य और भ्रूविक्षेपका मनोहारित्व प्रकट होता है, उसे ललितालंकार कहा जाता है।’
“कृष्ण आगे राधा यदि रहे दाण्डाइया ।
तिन-अंग-भंगे रहे भ्रू नाचाइया ।।
मुखे नेत्रे करे नानाभावेर उद्गार ।
एइ कान्ताभावेर नाम ‘ललित’ अलंकार ।।
ललित-भूषित यदि राधा देखे कृष्ण ।
दोहें दोंहा मिलिबारे हयतो सतृष्ण ।।”[2]
“ह्रिया तिर्यग्-ग्रीवा-चरण-कटिभंगीसुमधुरा,
चलच्चिल्लीवल्लीदलितरतिनाथोर्जितधनुः ।
प्रिय प्रेमोल्लासोल्लसितललितालालिततनुः,
प्रिय प्रीत्यै सासीदुदितललितालंकृतियुता ।।”[3]
‘श्रीकृष्ण-दर्शन से लज्जा से श्रीराधा का गीवादेश वक्र हो गया, पदों और कटि की मनोहर भंगिमा प्रकट हुई, भ्रूचाञ्चल्य देखकर मदन के ऊर्जित (श्रेष्ठ, शक्तिशाली) धनुष का गर्व भी खर्व हो गया और प्रियतम के प्रेमोल्लास से उल्लसित तथा ललिताजी द्वारा लालित अंगवाली बनकर वे प्रियतम की प्रसन्नता के लिए ललित नामक अलंकार से भूषित हुईं।’
इसी प्रकार श्रीकृष्णदर्शन मात्र से ही श्रीमती विलास नामक अलंकार से भूषित होती हैं।
“राधा बसि आछे किबा वृन्दावने जाय ।
ताँहा जदि आचम्बिते कृष्णादर्शन पाय ।।
देखितेइ नाना भाव हय विलक्षण ।
सेइ वैलक्षण्येर नाम विलास भूषण ।।
लज्जा हर्ष अभिलाष सम्भ्रम वाम्य हय ।
एतो भाव मिलि राधाय चञ्चल करय ।।”[1]
“गतिस्थानासनादीनां मुखनेत्रादि- कर्मणाम् ।
तात्कालिकन्तु वैशिष्ट्यं विलासः प्रियसंगजम् ।।”[2]
‘गमन अवस्थान और उपवेशन आदि के एवं मुख नेत्र आदि के कार्यों का प्रियसंगजनितजो तात्कालिक वैशिष्ट्य है, उसे ‘विलास’ कहा जाता है।’
“पुरः कृष्णालोकात् स्थगितकुटिलास्या गतिरभूत्,
तिरश्चीनं कृष्णाम्बर दरवृतं श्रीमुखमपि ।
चलत्तारं स्फारं नयनयुगमाभुग्नमिति सा,
विलासाख्य- स्वालंकरण- वलितासीत् प्रियमुदे ।।”[3]
‘सामने श्रीकृष्ण को देखने श्रीराधा की गति कुटिल और स्थगित हो गई, वक्र श्रीमुखमण्डल नीलवस्त्र से किञ्चित् आवृत हुआ और चञ्चल तारको युक्त नयन थोड़े से वक्र होने से उनमें (राधारानी में) विलास नामक अलंकार उदित हुआ, जो प्रियतम के लिए आनन्दजनक बना।’
इसी प्रकार भावालंकार से अलंकृत श्रीराधा के दर्शन कर श्रीकृष्ण के मुख पर अंग में नाना प्रकार का भावोद्गार प्रकट होता है।
राधारानी कहती हैं- सखियों! श्रीकृष्ण का मुखकमल निरक्षर संकेत कथन की भंगिमा से युक्त है। अधीर अर्थात् चञ्चल। मुझे कुञ्ज में भेजने के लिए उदीक्षमाण या ऊपर की ओर नयन सञ्चालन कर संकेत करते हैं। यह संकेत अन्य व्रजांगनायें न जान सकें, इसीलिए भय से दोलायित हैं नयन। फिर वह नर्मसंकेत अर्थात् मुझे भेजने का संकेतरूपी मनोभाव जो वेणु-रन्ध्रों के भीतर सन्निवेशित कर रहे हैं- उन्हीं नयनाभिराम देव को कब देख पाऊँगी?
क्रमशः ...
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