श्रीहित हरिवंश सच्चे युगल उपासक हैं और युगल में समान रस की स्थिति मानते हैं। उनकी दृष्टि में श्रीराधा की प्रधानता का अर्थ श्रीकृष्ण की गौणता नहीं है। राधा-सुधा- निधि स्तोत्र में श्री कृष्ण से वे उनकी प्रियतमा के चरणों में स्थिति मांगते हैं और श्रीराधा से उनके प्राणनाथ में रति की याचना करते हैं।युगल के लिये बिना, अकेले श्रीकृष्ण अथवा श्रीराधा से, रस की निष्पति संभव नहीं है। श्रीराधा के प्रति पूर्ण पक्षपात रखते हुए भी हित प्रभु अपनी मानवती स्वामिनी से कहते हैं, ‘हे राधिका प्यारी, गावर्धनधर लाल को सदैव एक मात्र तुम्हारा ध्यान रहता है। तुम श्यामतमाल से कनक लता से समान उलझ कर क्यों नहीं स्थित होतीं, और रसिक गोपाल को गौरी राग के गान द्वारा क्यों नहीं रिझातीं ? हे ग्वालिनि, तुम्हारा यह कंचन-सा तन और यह यौवन इसी काल में सफल होने का है। ये सखि, तुम महा भाग्यवती हो, अत: मेरे कहने से अब विलम्ब मत करो। तुम को श्यामसुन्दर के कंठ की माला के रूप में देखने की मेरी अभिलाषा उचित है।
श्रीहरिवंश सुरीति सुनाऊं, श्यामाश्याम एक संग गाऊं। छिन एक कबहुं न अंतर होई, प्रान सु एक देह हैं दोई।। राध संग विना नहीं श्याम, श्याम विना नहीं राधानाम। छिन-छिन प्रति आराधत रहई, राधानामश्याम तक कहहीं।। ललितादिकन संग सचु पावैं, श्रीहरिवंश सुरत-रति गावै।
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