*सखी-प्रकरण*
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आपेक्षिकाधिकात्रिक - यूथेश्वरी की अपेक्षा जो सखियाँ लघु होती हैँ , उनमें एककी तुलना में अन्य कोई अधिका होने पर उन्हें आपेक्षिकाधिका कहते हैँ ।
आपेक्षिकाधिकाप्रखरा -
एक दिन विप्रलब्धा श्रीराधा के मानिनी होने पर श्रीकृष्ण ने अनुनय-विनयपूर्वक चाटुकारीपूर्ण वचनों से सुमध्या नामक सखी को वशीभूतकर श्रीराधा के समीप समझाने बुझाने भेजा । ललिता सखी श्रीकृष्ण द्वारा प्रेरित सुमध्या को देखकर तिरस्कार करती हुई बोली - " दूति ! क्या तुम श्रीकृष्ण के गुणों से परिचित नहीँ हो ? वे शठकुल के गुरु हैं । तुम उनकी मत्तताजनक मधुर वाक्यों से दूसरी सखियों के साथ स्वयं भी मृदुता स्वीकार मत करना । हे क्रीडालुब्धे ! इस शठ के वाकजाल से मुग्ध होकर हमारी प्यारी सखी ने उस दिन उस कुँज में ग्लानि का भोग किया था, क्या उसे सम्पूर्ण रूप से भूल चुकी हो ? शायद इसलिये तुम उस धूर्त के प्रति पक्षपात करने के लिए प्रवृत्त हो रहे हो ।
इस पद में क्रीडालुब्धे कह कर श्याम सुंदर की सम्मोहनता से वशीभूत हो जाने के आशय से कहा है ।
श्रीमती राधिका युथ में ललिता ही अधिकप्रखरा कही गई है ।
अथाधिकमध्या - किसी समय श्रीमती राधिका ने विशाखा के हृदय के भीतर श्रीकृष्णांगसङ्ग की अभिलाषा को जानकर चतुरिका नामक अपने समान स्वभाववाली स्निग्धा सखी को दुतिकार्य में नियुक्त किया । श्रीमती राधिका ने अपने हाथों से गुँथी हुई मालती की सुंदर माला को विशाखा और चतुरिका के हाथों श्रीकृष्ण के पास भेजा । निकुँज के समीप जाकर विशाखा थोड़ी दूरी पर रुक गई और चतुरिका को विनयपूर्वक कहने लगी " हे प्रणयिनी ! प्रियसखी द्वारा प्रेरित इस पुष्पमाला को तुम स्वयं ही दामोदर के गले में अर्पण कर दो । मैं यहाँ पुष्पचयन कर रही हूँ । हे चतुरिके ! भ्रमवशतः भी श्रीकृष्ण मेरे यहाँ उपस्थित होने की बात जान न पाएं , अन्यथा मुझे देखते ही दामोदर मेरी विडम्बना करेगें ।" इस उदाहरण में वें मेरी कदर्थना करेगें, विशाखा की इस उक्ति से उनके हृदय में सम्भोग की स्पृहा अभिव्यक्त होने पर यहाँ उनका सखीत्व प्रकाशित नही हुआ, वरन् नायिकत्व ही सूचित हुआ ।
श्री राधा के यूथ में विशाखा ही अधिकमध्या कही गई हैं ।
क्रमशः ... !!
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