Wednesday, 19 October 2016

सखी प्रकरण 1

*सखी प्रकरण* --

*प्रेम , लीला और विहार आदि का विस्तार करने वाली को सखी कहते है । यें सखियाँ विश्वासरूपी रत्न की पेटिका स्वरूप है । अर्थात् विश्वास की विशेष पात्री होती हैँ । इसलिये इस प्रकरण में श्री रूप गोस्वामी जु और रसिक सन्तों के आश्रय से सखियों के भेद आदि की सुंदर विवेचना की जा रही है ।*

जो सखियाँ एक ही यूथ में अनुरक्त होती है उनमें प्रथम अधिकादि और प्रखरादि भेदों को जानना होगा । सखियों में जिनका प्रेम , सौभाग्य और सद्गुण्य सबकी अपेक्षा अधिक होता है , उनको अधिका , जो प्रेमादि के विषय में समान होती है , उन्हें समा या सम और लघु होने पर लघु कहा जाता है । जिनका वाक्य दुर्लघ्य होता है , जो सब समय गर्वयुक्ता रहती है, वें प्रखरा कहलाती हैं । गर्वादि की न्यूनता से मृद्वी और समता होने पर मध्या कही जाती है । आत्यन्तिकी अधिका आदि का भेद भी पहले की तरह समझना चाहिये । अपने युथ में यूथेश्वरी को आत्यन्तिकाधिका कहते हैं । वें अन्य युथ में प्रखरा , कही मध्या और कही मृद्वी भी होती है ।

यूथेश्वरी के प्रखरा , मध्या और मृद्वी भेद युथ की सखियों के प्रेमस्तर के अनुसार होते है । वे कभी दूसरी सखी के वशीभूत नही होती , परन्तु लीला की विचित्रता में वशीभूत भी हो सकती है । अपने युथ में यूथेश्वरी का व्यवहार यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है ।

आत्यन्तिकाधिका प्रखरा -
एक दिन श्यामला निबिड़ अंधकार को देखकर अभिसार के लिये अति व्याकुल होकर कहने लगी -- हे नील ! शीघ्र मेरी नीले रंग की चोली लाओ । हे मघे !दमनक पुष्प की माला मुझे दो (बिजली के कारण मेघ को यह कहा , और पहले आकाश को कहा) ।
हे प्रियसखी चम्पे ! कालागुरु के पंक का मेरे अंगो में लेपन करो
हे भ्रमराक्षि ! देखो कही आसपास में गुरुजन तो नही है ? मुझे प्रदोषकाल का घोर अन्धकार अभिसार के लिये बड़ा ही व्याकुल कर रहा है ।  अतः विलम्ब मत करो । शीघ्र ही सब कुछ जान मुझे बताओ ।
यहाँ श्यामा और मंगला आत्यन्तिकाधिका प्रखरा है ।

आत्यान्तिकाधिक मध्या --
सखि! मिलन के लिये विलम्ब न करो । शीघ्र चलो । इत्यादि उक्तिकारिणी सखियों के प्रति हास्य, गर्व और प्रणय को प्रकाशपूर्वक श्रीमती राधिका कहने लगी "प्रियसखियों ! यदि तुम्हारा चित्त कामदेव के बाणों से जर्जरित हो रहा है तो तुम ही मिलन पथगामी हो । मुझे बेकार और पीड़ित क्यों कर रही हो । वह स्त्री-लम्पट (मोहन के लिये प्रेम सम्बोधन कटाक्ष सम्बोधन में) तुम्हारी जैसी गोपियों के प्रेम का ही तो योग्य है । इस समय वह शांत चित्त से गायों के समूह का पालन कर रहा है । " यहाँ श्रीमती राधिका और पालिकादि आत्यन्ताधिकामध्या कही गई है ।

आत्यंताधिक मृद्वी -
एक समय मानिनी चन्द्रावली के निकट पद्मा को देखकर चतुर शिरोमणि श्रीकृष्ण वहाँ उपस्थित हुए और दक्षिण स्वभाव वाली चन्द्रावली को अनुनय विनय पूर्वक चाटुकारिपूर्ण वचनों के द्वारा प्रसन्न कर लिया । उसके बाद पद्मा सखी सब कुछ जान कर रोष से चन्द्रावली का तिरस्कार करने लगी । इस पर चन्द्रावली अपने भावों को छिपाते हुए पद्मा को विनयपूर्वक युक्ति से कहने लगी - सखि! सच बात तो यह है मान ग्रहण करने में मेरी हानि ही क्या है ? मुरलीनाद श्रवण के समय कानों को बन्द करने में क्या परिश्रम लगता है ? तुम अत्यंत कठोर हृदय वाली हो । ब्रज में इस प्रकार तुम्हारा जो दुर्नाम हो रहा है , उसे दूर करने के लिये ही मैंने एक बार मात्र उनके प्रति अर्द्धनिमिलित दृष्टि निक्षेप किया है । उनसे न तो मैंने सम्भाषण किया , न उनका स्पर्श ही किया है । मैंने ऐसा कुछ नही किया । " चन्द्रावली और भद्रादि व्रज में आत्यंताधिका मृद्वी कही गई हैं ।
क्रमशः ... जयजयश्यामाश्याम । तृषित ।

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