Monday, 3 October 2016

श्री राधिका महारास , तृषित

वंशी अलिजी रचित ‘श्री राधिका महारास’ प्रकाशित हो चुका है। इसके अध्‍ययन के द्वारा हम यह दिखलाने की चेष्टा करेंगे कि हितप्रभु की उपासना की रीति को छोड़ने से श्रीराधा-प्राधान्‍य का क्‍या रूप बन जाता है। ‘राधिका-महारास’ में श्री भागवत वर्णित रासलीला का संपूर्ण अनुकरण है, केवल श्रीकृष्‍ण के स्‍थान में श्रीराधा को प्रतिष्ठित कर दिया गया है। श्रीमद्भागवत की रासलीला में श्रीराधा का नामोलेख नहीं है, इसमें श्रीकृष्‍ण अनुपस्थित हैं। इसमें श्रीराधा ही वेणु-वादन करती हैं और जब सखी-गण ‘गृह-तन- बन्‍धु बिसारि’ कर उनके निकट पहुंचती है तो श्रीराधा कहती हैं, सहचरिधर्म नाहिं यह होई, सहचरि-धर्म सख्‍य रस जोई। हंसि हैं ओर सखी जेती मो, कौन देश तै आई ये को? इसके उत्तर में सखीगण कहती हैं, अहो कुंवरि तुम रुप यह नाहिंन राखत धर्म। तेरी सुधि विसरावई हमरे छेदत मर्म।। इसके बाद रास का आरंभ होता है और श्रीकृष्‍ण की भांति श्रीराधा एक सखी को लेकर रास के मध्‍य के अंतर्धान हो जाती हैं। सखीगण परम दुखित होकर विलाप करने लगती हैं और श्रीराधा की लीला का अनुकरण करती है। श्रीराधा प्रगट होकर उनके साथ रास क्रीडा का आरंभ करती हैं, रास में सब श्रमित हो जाती हैं और- श्रम निर्वारन चलीं, कुंवरि‍ राधा यमुना तट। प्रिया वृन्‍द लिये संग, माल मरगजि तैसे पट।। वारि मांझ मिले खेलत श्रीराधा संग प्‍यारी। प्‍यारी। छिरकत मुख छवि पैरनि हावभाव सुखकारी।। छिरकि-छिरकि लपटात कुंरि सौं सब व्रजनारी। तब अकुलाइ लड़ैती तिन सौं करत हहारी।। 

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