राधे राधे
कृष्ण प्रेम में प्रमत्त एक गोपी सिर पर दही की मटकी लेकर बेचने निकली है, किन्तु मन-प्राण-नैनन में तो कृष्ण ही कृष्ण बसे हैं। अत: दही बेचते समय मुख से निकलता है-"गोपाल ले लो (दही ले लो के स्थान पर)
दूसरी गोपी यह दृश्य देखती है और उसके पास पहुँच कर कहती है-"ले आओ अपना गोपाल, क्या मोल है? किस भाव से बेच रही हो? कैसे तुमने इस विलक्षण दही (गोपाल) को जमाया है? मेरा जी तो इसका स्वाद लेने के लिये (सवादै) ललचा रहा है"
इस दृश्य पर कवि की टिप्पणी है कि इस प्रकार ब्रज पर सदैव आनन्द के बादल (श्री कृष्ण)छाये रहतें हैं अर्थात श्री कृष्ण न रहने पर भी ब्रज के कण-कण में सतत विद्यमान रहते हैं। गोपियों के प्रेम की उमंग चातक की भाँति चारों ओर मँडराती रहती है।स्वयं कृष्ण गोप वधुओं की इस दही बेचने की अनोखी रीति पर बिक गये हैं और गोरस बन कर गोकुल की गली-गली में बह रहे हैं।
'गोरस' के श्लेष से अर्थ की एक विलक्षण छाया उभरती है। गोरस दही बन कर कृष्ण बिक रहें हैं। ब्रह्म स्वरूप कृष्ण जो 'गो' अर्थात इन्द्रियों से परे हैं- वही कृष्ण 'गोरस' (इन्द्रिय-रस-प्रेम-स्वरूप) होकर गली-गली बिक रहे हैं। तात्पर्य यह कि इन ब्रजवासियों को इन्द्रियों के स्तर पर वह सुलभ है जो स्वयं इन्द्रियातीत है-
"एक डोलै बेचति गुपालहिं दहेंड़ी धरै
नैननि समान्यौ सोई बैननि जनात है।
और उठि बोलै आगै ल्याई री कहा है मोल
कैसौ धौं जम्यो है ज्यों सवादै ललचात है।
आनन्द कौ घन छायौ रहता सदाई ब्रज
चोपनि पपीहा लौंग चहुँधा मँडरात है।
गोकुल-वधुनि की बिकानि पै बिकाय रहै
गोरस ह्वै गली-गली मोहन बिकात है"
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