Saturday, 22 October 2016

श्री कृष्ण-उद्दीपक - भाग 1

श्रीकृष्ण-उद्दीपन

भाग-1
विभाव दो प्रकार के होते है - आलम्बन और उद्दीपन ।

आलम्बन - यह भाव की निर्माण का मुख्य कारण होता है| जब भाव सन्त , रसिक या वस्तु या कर्म की वजह से आकार लेता हे उसे आलम्भन विभाव कहते हैं| ( किसी वस्तु-स्थिति-व्यक्ति-भाव आदि का भगवतोन्मुख करने का सहारा )

उद्दीपक - कोई वस्तु - स्थिति आदि जब प्रियतम की और किसी वस्तु भावना को उत्तेजित करता हे जैसे गुण, कार्रवाई, सजावट, वातावरण आदि ...

श्री राधाकृष्ण के स्मरण तत्वों पर ही हम बात करने जा रहे है  , जिनके जीवन में किसी भी रूप आने पर हरि स्मृति सजीव हो जाती है ।

प्रिया-प्रियतम के गुण , नाम , चरित्र , मण्डन , शृंगार और तटस्थ (अस्थायी भाव समूह) ही श्रृंगार रस में उद्दीपक है ।

गुण-
मानसिक , वाचिक , कायिक तीन गुण भेद है ।

मानसगुण - कृतज्ञता , क्षमा करुणा आदि ।
श्यामसुन्दर की माधुर्य छवि दर्शन कर कोई सखी श्री अन्य से कहती है - हे सखी ! जो अति अल्प सेवा से ही वशीभूत हो जाते है (कृतज्ञता) , दुःसह अपराध करने पर भी मृदुहास्य करते हैं (क्षमाशीलता), और दूसरों के दुःख से अत्यंत कातर हो उठते है (करुणा) , उन हरि का दर्शन करने के लिये मेरा मन अत्यंत उतावला हो रहा है ।

वाचिक गुण - जो वचन कर्ण रसायन अर्थात् कर्णप्रिय होते है । श्री कृष्ण अपने प्रिय सखा के संग कर्णप्रिय आलाप कर रहे थे । इन वचनामृत का पान कर  समीप के कुँज में श्रीराधिका सखी विशाखा जी को अपनी अतृप्ति बतला रही है - हे सखि ! जिनके मुखे से झरते अक्षरसमुह हमारे कर्णों को अन्य विषयों से हटाकर अपनी ओर आकर्षित करने में लगाकर रखते है ।  श्री माधव के मुखनिःसृत ऐसे अश्रुतपूर्व, अनुपम माधुर्ययुक्त और रसाल वचनामृत का पानकर मैं कभी भी परितृप्त नहीँ हो पाई ।

कायिक गुण -
वयस , रूप , लावण्य , सौंदर्य , अभिरूपता , माधुर्य और मार्दव इत्यादि कायिक गुण है ।

वयस - इसके चार प्रकार है - वयः सन्धि , नव्य , व्यक्त और पूर्णयौवन ।
वयः सन्धि - बाल्य (पौगण्ड) और यौवन की सन्धि अर्थात् प्रथम कैशोर को वयः सन्धि कहते हैं ।

वयः सन्धि का माधुर्य और प्रियता ... क्रमशः ...

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