Sunday, 23 October 2016

सेवा कुञ्ज और निधिवन

स्थान - सेवाकुंज को निकुंज वन या निधिवन भी कहते हैं। रासलीला के श्रम से व्यथित राधाजी की भगवान् द्वारा यह सेवा किए जाने के कारण इस स्थान का नाम सेवाकुंज पडा। सेवाकुंज वृंदावन के प्राचीन दर्शनीय स्थलों में से एक है। राधादामोदर जी मन्दिर के निकट ही कुछ पूर्व-दक्षिण कोण में यह स्थान स्थित है।
स्थापना - गोस्वामी श्रीहितहरिवंश जी ने सन 1590 में अन्य अनेक लीला स्थलों के साथ इसे भी प्रकट किया था।
श्री विग्रह - यहाँ एक छोटे-से मन्दिर में राधा जी के चित्रपट की पूजा होती है।लता दु्रमों से आच्छादित सेवाकुंज के मध्य में एक भव्य मंदिर है, जिसमें श्रीकृष्ण राधाजी के चरण दबाते हुए अति सुंदर रूप में विराजमान है। राधाजी की ललितादि सखियों के भी चित्रपट मंदिर की शोभा बढा रहे हैं। सेवा कुंज में ललिता-कुण्ड है। जहाँ रास के समय ललिताजी को प्यास लगने पर कृष्ण ने अपनी वेणु(वंशी) से खोदकर एक सुन्दर कुण्ड को प्रकट किया। जिसके सुशीतल मीठे जल से सखियों के साथ ललिता जी ने जलपान किया था।सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, जनश्रुति है कि यहाँ आज भी नित्य रात्रि को रासलीला होती है।

निधि वन जी का इतिहास
वृंदावन श्यामा जू और श्रीकुंजविहारीका निज धाम है. यहां राधा-कृष्ण की प्रेमरस-धाराबहती रहती है. मान्यता है कि चिरयुवाप्रिय-प्रियतम श्रीधामवृंदावन में सदैव विहार में संलग्न रहते हैं. यहां निधिवन को समस्त वनों का राजा माना गया है, इसलिए इनको श्रीनिधि वनराज कहा जाता है. पंद्रहवीं शताब्दी में सखी-संप्रदाय के प्रवर्तक संगीत सम्राट तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जब वृंदावन आए, तब उन्होंने निधिवन को अपनी साधनास्थली बनाया.
ऐसा कहा जाता है कि स्वामी हरिदासनिधिवन में कुंजबिहारी को अपने संगीत से रिझाते हुए जब तानपूरे पर राग छेडते थे, तब राधा-कृष्ण प्रसन्न होकर रास रचाने लग जाते थे. यह रास-लीला उनके शिष्यों को नहीं दिखती थी. विहार पंचमी को लेकर कथा है कि अपने भतीजे और परमप्रिय शिष्य वीठलविपुलजी के अनुरोध पर उनके जन्मदिवस मार्गशीर्ष-शुक्ल-पंचमी के दिन स्वामी जी ने जैसे ही तान छेडी, वैसे ही श्यामा-श्याम अवतरित हो गए. स्वामीजी ने राधा जी से प्रार्थना की वे कुंजविहारी में ऐसे समा जाएं, जैसे बादल में बिजली. स्वामी जी के आग्रह पर प्रियाजी अपने प्रियतम में समाहित हो गई. इस प्रकार युगल सरकार की सम्मिलित छवि बांकेबिहारीके रूप में मूर्तिमान हो गई और अगहन सुदी पंचमी (मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी) विहार पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हो गई.
निधिवन में श्यामा-श्यामसुंदर के नित्य विहार के विषय में स्वामी हरिदासजी द्वारा रचित काव्य ग्रंथ केलिमाल पर्याप्त प्रकाश डालता है. 110पदों वाला यह काव्य वस्तुत:स्वामीजी के द्वारा समय-समय पर गाये गए ध्रुपदोंका संकलन है, जिनमें कुंजबिहारीके नित्य विहार का अतिसूक्ष्मएवं गूढ भावांकन है.
"माई री सहज जोरी प्रकट भई जु रंग की गौर श्याम धन दामिनी जैसे !
प्रथम हूँ हुती अबहूँ आगे हूँ रहिहै ना ट रिहै तैसे !
अंग अंग की उजराई सुधराई चतुराई सुंदरता ऐसे !
श्री हरि दास के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी सम वैसे वैसे " !
ऐसी कहा जाता है निधिवन के सारी लताये गोपियाँ है जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है,और फिर रास लीला आरंभ होती है,इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की "परम दिव्यातिदिव्य लीला" है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.
जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि में शयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते है तो जल पीला मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है.
एक बार की बात है जब एक व्यक्ति रास लीला देखने के लिए निधिवन में झाडियों में छिपकर बैठ गया.जब सुबह हुई तो वह व्यक्ति निधिवन के बाहर विक्षिप्त अवस्था में पड़ा मिला लोगो ने उससे पूंछा पर वह कुछ भी नहीं बोला सात दिन तक उसने ना कुछ खाया ना पिया और ना ही कुछ बोला सात दिन बाद उसने एक कागज पर लिखा कि मेने राधा रानी और बिहारी जी को रास लीला करते अपनी इन आँखों से देखा है और इतना लिखकर वह मर गया. क्योकि एक तो कोई उनकी उस लीला को देख नहीं सकता और कोई अगर देख लेता है तो फिर वह इस जगत का नहीं रहता.
हमने जो संतो के श्री मुख से सुना और पढ़ा उसी को लिखने कि छोटी सी कोशिश है क्योकि उस दिव्यातिदिव्य लीला के बारे में और निधिवन के बारे में हम और हमारे शब्द पर्याप्त नहीं है राधा रानी और बिहारी जी जैसे अनंत है अपार है वैसे ही उनकी लीलाएँ भी अनंत और अपार है.
"जय जय श्री राधे"

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