Friday, 28 October 2016

रसिकों के नेत्र से रस दर्शन , तृषित

श्री हरिदास सरन जे आये ।
कुंजबिहारी ललित लाडिले अपने जानि निकट बैठाये ।

रसिक आश्रय , से रस उज्ज्वल होता जाता है । श्यामाश्याम रस , यह वृन्दावन रस , युगल प्रेम और ब्रज कुँजन की रसमयी लहरियाँ अति गहन रसावनि है । अति गहन । सामान्य दृष्टि से प्रकट नहीँ , अप्रकट । और रसिक अनन्य की दृष्टि से वह रस झाँकी हटती नही ।
प्राकृत चक्षु यह हमारे जड़ चक्षु वह झाँकी नहीँ देख पाते जो तत्क्षण उसी दिशा में रसिक सन्त निरन्तर निहारते है । अप्राकृत ब्रज नित्य लीला हेतु चक्षु भी वैसे हो , अप्राकृत । हमारे चक्षु प्राकृत , अर्थात् जड़ । स्व प्रकाशित नहीँ । इन जड़ चक्षुओं को रस पिपासा के अभाव में जड़ता ही दृश्य होगी ।
और जागृत नित्य रस आतुर , रस निहारण चक्षु से नित्य झाँकी प्रकट होगी । अप्राकृत रस की कुछ सौरभ ही प्राकृत तक आती है , कुछ लालसा में यह सौरभ , कुछ नित्य धाम में लीला ध्वनियाँ वहाँ लें जाने को आने लगती है परन्तु वह भी जब आती है जब पिपासा एक अनन्यता से एक ही दिशा में बहे ।
लौकिक जीवन में नाना छद्म और उतार-चढ़ाव है परन्तु नित्य रस में एक स्थिति । नित्य नव रंग में नित्य आनन्द ।
अप्राकृत दिव्य नित्य रसिक जगत में रस को क्षणिक प्रकट करते है रस स्पर्श से लालसा जागृति हेतु फिर अनन्य रस की प्राप्ति हेतु अर्थात् जगत को वास्तविक रस का दर्शन कराने हेतु प्रकट होते है , नित्य रसिक स्वरूप ।
जड़ तो उस चेतन को कैसे छुएगा जब चेतन तत्व भी छु नही पाते । जैसे देव-मुनि आदि । यह माधुर्य रस पिपासा अनन्य हो , और जिन्हें रस दर्शन प्राप्त उनकी कृपा से उनका दर्शन प्राप्त हो तब कुछ बात बने । स्व दृष्टि से लोक ही नही हटता , मृत्यु उपरान्त भी आत्म तत्व का बन्धन नही छूटता और वह जगत ही देखता या देखना चाहता तो जीवन रहते यह लौकिक जगत की अपेक्षा वास्तविक रस जगत (भावजगत) अगर उद्घाटित हो , माया के पर्दे हटे और दिख पड़े दो अनुपम लावण्य रस लालित्य में विदग्ध कोमलत्व का सार स्वरूप दिव्य अलौकिक परम् महा सौंदर्य कोटि चन्द्र राशियों से सजे हमारे "लाड़ली-लाल" ।
रसिक ही रस दृष्टि दे सकते है , क्योंकि यह वास्तविक विषय है कि अप्राकृत केलि को हम माया पाश से बंधे अन्धतम कूप में गिरे जीव नही देख सकते ।

सम्प्रदाय आदि का अर्थ है दर्शन । नित्य रस जिनका दर्शन उनके अनुगमन पूर्व वह प्रकट होता ही नहीँ , ऐसा आभास भी हो तब भी वह युगल और रसिक सन्त की ही कृपा ।
रसिक लोक नही नित्य रस निहारते अतः ऐसे पारसमणि के संग वह रस छु जाता फिर व्याकुलता की गति से रसवर्धन होने लगता है । परन्तु जड़ता का त्याग होता चेतन के स्पर्श से है और रसिक सन्त नित्य चेतन ही नही आह्लादित भी है ।
रसिक सन्त को रस प्रदान करने हेतु जड़ देह के संग की आवश्यकता भी नही वह चिन्मय देह को किसी तरह जागृत कर उसे भावातुर कर भावदेह में प्रकट कर सकते है । फिर भावदेह को जड़ सम्बन्ध से रूचि रहती नही वहाँ नित्य स्थिर रूप से युगल केलि प्रकट हो जाती ।
जिस वस्तु का अधिकारी जो है वही वितरण कर सकता है । रस का अधिकारी ही रस वितरण कर सकता है इससे रस वर्धन ही होता है ।

युगल दर्शन ही नही , युगल प्रकट संग भी देते है , सच्ची सेवातुरता से कोई भी ऐसा दर्शन प्राप्त कर सकता है जिस पर जगत  कुछविश्वास कर भी अनुभूत नही कर सकता । वह दर्शन वृंद-रसिकों का निज धन है --

ऐसी गति ह्वै है कबहुँ, मुख निरखत नहीँ बैन ।
देखि-देखि वृन्दाविपिन, भरि-भरि ढारै नैन ।

यह नैन भी नित्य रसिक नैन है , रस दर्शन हेतु रसिक सन्त ही दर्शन की भावना और रूप की गाढ़ता और प्रकाश सब कृपावत देते है । जयजय श्यामाश्याम । -- "तृषित"

रस की गाढ़ता में युगल दर्शन में पृथ्क्य दर्शन नहीँ होता ।
स्यामास्याम संग ही नहीँ वरन् एक रूप ही अनुभूत होते है ।
रस आतुर एक श्री विग्रह और भावदर्शन में भी दोनों पाते है और निहारते है
गहनतम रसिक की और गहरी स्थिति है । वहाँ तो ...

रसिकों के नेत्र से रस दर्शन , तृषित

श्री हरिदास सरन जे आये ।
कुंजबिहारी ललित लाडिले अपने जानि निकट बैठाये ।

रसिक आश्रय , से रस उज्ज्वल होता जाता है । श्यामाश्याम रस , यह वृन्दावन रस , युगल प्रेम और ब्रज कुँजन की रसमयी लहरियाँ अति गहन रसावनि है । अति गहन । सामान्य दृष्टि से प्रकट नहीँ , अप्रकट । और रसिक अनन्य की दृष्टि से वह रस झाँकी हटती नही ।
प्राकृत चक्षु यह हमारे जड़ चक्षु वह झाँकी नहीँ देख पाते जो तत्क्षण उसी दिशा में रसिक सन्त निरन्तर निहारते है । अप्राकृत ब्रज नित्य लीला हेतु चक्षु भी वैसे हो , अप्राकृत । हमारे चक्षु प्राकृत , अर्थात् जड़ । स्व प्रकाशित नहीँ । इन जड़ चक्षुओं को रस पिपासा के अभाव में जड़ता ही दृश्य होगी ।
और जागृत नित्य रस आतुर , रस निहारण चक्षु से नित्य झाँकी प्रकट होगी । अप्राकृत रस की कुछ सौरभ ही प्राकृत तक आती है , कुछ लालसा में यह सौरभ , कुछ नित्य धाम में लीला ध्वनियाँ वहाँ लें जाने को आने लगती है परन्तु वह भी जब आती है जब पिपासा एक अनन्यता से एक ही दिशा में बहे ।
लौकिक जीवन में नाना छद्म और उतार-चढ़ाव है परन्तु नित्य रस में एक स्थिति । नित्य नव रंग में नित्य आनन्द ।
अप्राकृत दिव्य नित्य रसिक जगत में रस को क्षणिक प्रकट करते है रस स्पर्श से लालसा जागृति हेतु फिर अनन्य रस की प्राप्ति हेतु अर्थात् जगत को वास्तविक रस का दर्शन कराने हेतु प्रकट होते है , नित्य रसिक स्वरूप ।
जड़ तो उस चेतन को कैसे छुएगा जब चेतन तत्व भी छु नही पाते । जैसे देव-मुनि आदि । यह माधुर्य रस पिपासा अनन्य हो , और जिन्हें रस दर्शन प्राप्त उनकी कृपा से उनका दर्शन प्राप्त हो तब कुछ बात बने । स्व दृष्टि से लोक ही नही हटता , मृत्यु उपरान्त भी आत्म तत्व का बन्धन नही छूटता और वह जगत ही देखता या देखना चाहता तो जीवन रहते यह लौकिक जगत की अपेक्षा वास्तविक रस जगत (भावजगत) अगर उद्घाटित हो , माया के पर्दे हटे और दिख पड़े दो अनुपम लावण्य रस लालित्य में विदग्ध कोमलत्व का सार स्वरूप दिव्य अलौकिक परम् महा सौंदर्य कोटि चन्द्र राशियों से सजे हमारे "लाड़ली-लाल" ।
रसिक ही रस दृष्टि दे सकते है , क्योंकि यह वास्तविक विषय है कि अप्राकृत केलि को हम माया पाश से बंधे अन्धतम कूप में गिरे जीव नही देख सकते ।

सम्प्रदाय आदि का अर्थ है दर्शन । नित्य रस जिनका दर्शन उनके अनुगमन पूर्व वह प्रकट होता ही नहीँ , ऐसा आभास भी हो तब भी वह युगल और रसिक सन्त की ही कृपा ।
रसिक लोक नही नित्य रस निहारते अतः ऐसे पारसमणि के संग वह रस छु जाता फिर व्याकुलता की गति से रसवर्धन होने लगता है । परन्तु जड़ता का त्याग होता चेतन के स्पर्श से है और रसिक सन्त नित्य चेतन ही नही आह्लादित भी है ।
रसिक सन्त को रस प्रदान करने हेतु जड़ देह के संग की आवश्यकता भी नही वह चिन्मय देह को किसी तरह जागृत कर उसे भावातुर कर भावदेह में प्रकट कर सकते है । फिर भावदेह को जड़ सम्बन्ध से रूचि रहती नही वहाँ नित्य स्थिर रूप से युगल केलि प्रकट हो जाती ।
जिस वस्तु का अधिकारी जो है वही वितरण कर सकता है । रस का अधिकारी ही रस वितरण कर सकता है इससे रस वर्धन ही होता है ।

युगल दर्शन ही नही , युगल प्रकट संग भी देते है , सच्ची सेवातुरता से कोई भी ऐसा दर्शन प्राप्त कर सकता है जिस पर जगत  कुछविश्वास कर भी अनुभूत नही कर सकता । वह दर्शन वृंद-रसिकों का निज धन है --

ऐसी गति ह्वै है कबहुँ, मुख निरखत नहीँ बैन ।
देखि-देखि वृन्दाविपिन, भरि-भरि ढारै नैन ।

यह नैन भी नित्य रसिक नैन है , रस दर्शन हेतु रसिक सन्त ही दर्शन की भावना और रूप की गाढ़ता और प्रकाश सब कृपावत देते है । जयजय श्यामाश्याम । -- "तृषित"

Wednesday, 26 October 2016

चैतन्य चरितामृत में राधा जु और वैष्णव महिमा

🔰 *श्रीमती राधारानी कौन है*🔰⚜

🌹श्रीमती राधा रानी जी महिमा श्री चैतन्य चरितामृत से ओर शास्त्रो से🌹

🔷🌿कृष्ण कांतागण देखि त्रिविध प्रकार।
एक लक्ष्मी-गण, पुरे महिषीगन आर।।
व्रजांगना रूप आर,कांतागण सार ।
श्रीराधिका हैते कांतागनेर विस्तार।।
        (C c adi lila 4.74-75)

⏩ *अर्थ*-  भगवान् श्री कृष्ण की प्रेयसियां तीन प्रकार की हैं-लक्ष्मियां,महिषियां और व्रज की गोपियां।गोपियां इन तीनो मेँ सर्वोपरि हैं।ये सारी प्रेयसियां श्रीराधा का ही विस्तार है।

♻🌸अवतारी कृष्ण यैछे करे विस्तार।
अंशिनी राधा हैते तीन गनेर विस्तार।।
        (C c adi lila 4.76)

⏩ *अर्थ*-  श्री कृष्ण सभी अवतारों के उद्गम (कारण)हैं।वैसे ही श्रीमती राधारानी से इन तीनो प्रकार की प्रेयसियों का विस्तार होता है।

✨☘गोविंदानंदिनी राधा,गोविन्द मोहिनी।
गोविन्द-सर्वस्व,सर्व-कांता-शिरोमणि।।
        (C c adi lila 4.82)

⏩ *अर्थ*-श्रीराधा गोविन्द को आनंद देनेवाली हैं और वे गोविन्द को मोहनेवाली भी हैं।वे वोविन्द की सर्वस्व हैं।ये उनकी समस्त प्रेयसियों में शिरोमणि हैं।

💠🌿देवी-कृष्ण-मयी प्रोक्ता राधिका पर देवता।
सर्व-लक्ष्मी-मयी सर्व-कांतिः सम्मोहिनी परा।।
         (C c adi lila 4.83)

⏩ *अर्थ*-परम सुंदरी श्रीमती राधारानी भगवान् कृष्ण से अभिन्न हैं।कृष्ण प्रीत्यर्थ उनकी आराधना करती हैं और सर्वाराध्या(सर्वपूज्य) हैं।सभी लक्ष्मीयो की आदि स्त्रोत हैं।समस्त कान्ति तथा सौन्दर्य का आश्रय हैं।वे सर्वाकर्षक भगवान् को आकर्षण करनेवाली हैं।अतः वे समस्त देवियों में सर्वश्रेष्ठा हैं।

❄🌻जगतमोहन कृष्ण ,ताहार मोहिनी।
अतएव समस्तेर परा ठकुरानी।।
        (Cc adi lila 4.95)

⏩ *अर्थ*-भगवान् कृष्ण जगत को मोहित करते हैं, किंतु श्री राधा उन्हें भी मोहित करती हैं।अतएव समस्त देवियों में सर्वश्रेष्ठा(ठकुरानी)है।

🍀🌷राधा पूर्ण शक्ति कृष्ण पूर्ण शक्तिमान।
दुई वस्तु भेदनाई, शास्त्र परमान।।
        (Cc adi lila 4.96)

⏩ *अर्थ*-श्रीमती राधारानी हैं पूर्ण शक्ति एवं भगवान् कृष्ण हैं पूर्ण शक्तिमान।इन दोनों में कोई भेद नही ये शास्त्र प्रमाण है।

🏵🍀राधाकृष्ण ऐछे सदा एकई स्वरूप।
लीला-रस आस्वादिते धरे दुई-रूप।।
         (Cc adi lila 4.98)

⏩ *अर्थ*-इस प्रकार राधाकृष्ण सर्वदा एक ही स्वरूप हैं।फिर भी लीला-रस का आस्वादन करने के लिए दोनो ने भिन्न रूप धारण कर रखे हैं।

🌟🌹राधिका हयेन कृष्णेर प्रणय-विकार।
स्वरूप शक्ति-ह्लादिनी नाम यांहार।।
       (Cc adi lila 4.59)

⏩ *अर्थ*-श्रीमती राधा कृष्ण प्रेम का परिवर्तित रूप है।वे ह्लादिनी नाम की उनकी अंतरंगा शक्ति हैं।

🔰🍁ह्लादिनी कराय कृष्णे आनंदास्वादन।
ह्लादिनिर द्वारा करे भक्तेर पोषण।।
       (Cc adi lila.4.6

⏩ *अर्थ* -यह ह्लादिनी शक्ति कृष्ण को आनंद प्रदान करती है और उनके भक्तों का पोषण करती है।

🌀🌺ह्लादिनिर सार 'प्रेम' प्रेमसार 'भाव'।
भावेर परमकाष्ठा,नाम-'महाभाव' ।।
        
⏩ *अर्थ*-ह्लादिनी शक्ति का सार भगवत्प्रेम है,भगवत्प्रेम का सार भाव है और भाव का अंतिम-विकास महाभाव है।

❇🌾महाभाव स्वरूपा श्रीराधा ठकुरानी।
सर्व गुणखानी कृष्णकांता शिरोमणि।।
  
⏩ *अर्थ*-श्रीमती राधा ठकुरानी महाभाव स्वरूपा हैं।वे सभी सद्गुणों की आधार हैं एवं श्री कृष्ण प्रेयसियों में शिरोमणि हैं।

🔆🌺  कृष्ण प्रेमभावित यार चितेन्द्रिय-काय।
कृष्ण निज शक्ति राधा क्रीड़ार सहाय।।

⏩ *अर्थ* - जिनका मन, इंद्रिय व् शरीर कृष्ण प्रेमसे परिपूर्ण है।वह श्री राधा श्री कृष्ण की अपनी शक्ति हैं और वे श्री कृष्ण को लीलाओं में सहायता करती हैं।

C C का अर्थ चैतन्य चरितामृत
⚜✳⚜✳⚜✳⚜✳

🌹🌹वैष्णव महिमा 🍁🍁

अन्त्य लीला चैतन्य चरितामृत चतुर्थ परिच्छेद में गौरांग महाप्रभु श्री हरिदास ठाकुर से कहते हैं -

प्रभु कहे,वैष्णवेर देह 'प्राकृत' कभू नय।
'अप्राकृत्' देह भक्तेर चिदानन्दमय।।

दीक्षा काले भक्त करे आत्मसमर्पण।
सेई काले कृष्ण तांरे करे आत्मसम।।
🍁🍀🍀🍀🍀🍀🍁
*अर्थ*-श्री महाप्रभु बोले ,"हे हरिदास! वैष्णव का देह प्राकृत कभी नही होता है।भक्तों का देह सदा चिदानन्दमय अप्राकृत् हुआ करता है।
जब दीक्षा ली जाती है तब भक्त भगवान् के लिए आत्म समर्पण करता है,उसी समय से ही श्री कृष्ण उसे अपने समान चिदानन्दमय-गुणातीत कर देते हैं।

🌹🍀🌹🍀🌹🍀🌹🍀

मध्य लीला द्वाविंश(12)परिच्छेद

सर्व महा गुणगन वैष्णव शरीरे।
कृष्ण भक्ते कृष्णेर गुण सकल संचारे।।

*अर्थ*-वैष्णवों के शरीर में समस्त ही सद्गुण वर्तमान रहते हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण ,भक्त में अपने गुणों का संचार करते हैं।
श्री कृष्ण में अनंत गुण हैं, फिर भी 64 माने गए हैं।वे 64  गुण भक्तों में संचारित नही होते,भक्तिरसामृत सिंधु के अनुसार केवल 29 गुण भक्तो में संचारित होते हैं।
🌹🍁🍀🍁🌹🍀🍁🌹

Monday, 24 October 2016

कृपा जो राधा जु की चहिये , भाई जी

कृपा जो राधाजू की चहियै।
तो राधाबर की सेवा में तन मन सदा उमहियै॥
माधव की सुख-मूल राधिका, तिनके अनुगत रहियै।
तिन के सुख-संपादन कौ पथ सूधौ अबिरत गहियै॥
राधा पद-सरोज-सेवा में चित निज नित अरुझ‌इयै।
या बिधि स्याम-सुखद राधा-सेवा सौं स्याम रिझ‌इयै॥
रीझत स्याम, राधिका रानी की अनुकंपा प‌इयै।
निभृत निकुंज जुगलसेवा कौ सरस सु‌अवसर लहियै॥

भाई जी

आरति राधा-राधबर प्रवर जी की

आरति राधा-राधाबर की।
महाभाव रसराज-प्रवर की॥

स्याम बरन पीतांबर-धारी।
हेम बरन तन नीली सारी॥
सदा परस्पर सुख-संचारी।
नील कमल कर मुरलीधर की।
आरति राधा-राधाबर की॥-१॥

चारु चन्द्रिका मन-धन-हारी।
मोर-पिच्छ सुंदर सिरधारी॥
कुंजेश्वरि नित कुंज-बिहारी।
अधरनि मृदु मुसुकान मधुर की।
आरति राधा-राधाबर की॥-२॥

प्रेम-दिनेस काम-तम-हारी।
रहित सुखेच्छा निज, अविकारी॥
आश्रय-विषय परस्पर-चारी।
पावन परम मधुर रसधर की।
आरति राधा-राधाबर की॥-३॥

निज-जन नेह अमित बिस्तारी।
उर पावन रस-संग्रहकारी॥
दिव्य सुखद, दुख-दैन्य-बिदारी।
भक्त-कमल-हित हिय-सरबर की।
आरति राधा-राधाबर की॥-४॥

भाई जी ।

Sunday, 23 October 2016

उलझन-अभिव्यक्ति - लीला

*उलझन-अभिव्यक्ति*

मानिनि ! तुम्हारी रीझ अद्भुत् है , तुम्हारी बात निराली है । मेरे पूजन-आराधन से सन्तुष्ट-पुष्ट होने पर भी तुम कुटिल कटाक्ष-बाण-सन्धान द्वारा भला, क्यों आहत कर रही हो? तुम्हारी इस रसकण चुनौती को मैं हृदय से स्वीकार, सत्य सिद्ध करूँगा ही । तुम्हीं ने उकसाया है । रँगीले रसमत्त सुघर किशोर ने मुस्करा कर अपांग चितवन प्रसून बरसाते हुये , प्रिया ने कहा । मृदुल अधरों पर राजित मुस्कान रेखा और उभर कर आई और उस उभार को रसज्ञसुन्दर ने शत-शत रस बौछार से समादृत किया , बोले ... "उत्तर दो, अच्छा, यही बताओ कि तुम्हारे अधरों की भाषा में नयनों की बात है या नयनों की भाषा में अधरों की वाञ्छा? तुम्हारे रूठने की कला आज हार गयी , हारकर एकबार फिर तुम्हारी सुरत सेनानी कुटिल नयनों ने मुझे ललकारा है । तुम्हारी मृदु मुस्कान दूतिका ने स्वयं मुझे रसरण रहस्य की सभी परिपाटी की दीक्षा दे ,  रसरण प्रवृत्ति को झँझोड़ दिया है, अब तुम्हारी एक न सुनूगां मैं "

रतिरसरण की खुमारी बढ़ती जा रही थी और वें रतिरस पारंगत साँवर किशोर रसविवश हुये, मनसिज पूजन कर ..... उन्मत हो उठे ।
उनके उन्मादक संकेत समझ दुर्गम मदन घाटी के आच्छादन को छिन्न-भिन्न कर, कर-प्रवीरों ने वहाँ प्रवेश किया । शत-शत प्रयत्न करने पर भी प्रियाजी की मूकता मुखर हो, अधर द्वार से बाहर न निकल सकी । अधरद्वय कम्पित होकर रह गए  उनके कोमल करों की मृदुलता तनिक आवेश में आई, फिर उसने रोकथाम,  पकड़-धकड़ करने का कुछ प्रयास किया, पर सबल प्रवीरों की व्यग्र गति ने उसे क्षण भर में ही पराजित कर दिया । नयनों के वह कुटिल कटाक्ष बाण शरकोष में जा छिपे । वह मधुर-मृदु मुस्कान किसी गम्भीर फड़कन में दुबक बैठी । मुखमण्डल की आरक्त शोभा और-और वर्द्धित हो, रत्यानुरागि प्रियतम को अधिकाधिक कन्दर्प वेग से सज्जित कर, न जाने किस-किस गुप्त प्रहार वार में प्रवृत्त करने लगी । सीत्कार ध्वनि की पराजय घोषणा ने भी उस उन्मत्त रणावेग को रोका नहीँ , अपितु वेग और-और बढ़ चला । पराजय-घोष की विचित्रता तो देखो, उसी ने प्रियाजी को चमत्कृत कर कुछ ही क्षणों में विजयिनी बना दिया । क्या पता, यह सब कैसे हो गया ।
प्रियतम अब प्रिया की भुज श्रृंखलाओं में दृढ़ता से बद्ध थे । उनके सुनील-सुकुमार-सुपुष्ट वपु पर रसाघात के अंक खिल रहे थे । नयनों की भाषा में अधरों की वान्छा उलझ रही थी और अधरों की भाषा में नयनों की बात व्यक्त हो रही थी । उलझन और अभिव्यक्ति के उस द्वन्द में फिर रसावेग ने हिलोरें लीं । मदन झकोरों, रतिरशिलोरों से लोलित, उद्वेलित वे रसोन्मादी युगल । ... जयजय श्यामाश्याम ।

श्री राधाकुण्ड संक्षिप्त प्रकरण

🙌 श्रीराधाकुण्ड के प्रागट्य(अहोई अष्टमी एवम् बहुलाष्टमी) उत्सव की सभी वैष्णव जनों को कोटि-कोटि बधाई !!

🌹🌿श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन पर्वत की तलहटी में शोभायमान है। कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी(बहुलाष्टमी) अर्थात आज के दिन यहाँ स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को श्री प्रिया-प्रियतम की सेवामयी प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है। अर्धरात्रि के समय श्रीराधाकुण्ड एवम् श्रीकृष्णकुण्ड दोनों कुण्डों का प्रकाश हुआ था, अत:  बहुलाष्टमी की अर्द्धरात्रि में लाखों लोग यहाँ स्नान करते हैं।

🌿🌹समस्त जीवमात्र पर कृपा करुणा की भावना से द्रवीभूत श्रीकृष्ण और उनकी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा ही रसरूप में साकार हो जाती हैं और वह रस ही जब श्रीकृष्ण कृपा से संचित संग्रहीत होता है तो श्रीराधाकुण्ड और श्रीश्यामकुण्ड के रूप में दो दिव्य तीर्थ प्रकट हो जाते हैं।

🌹🌿इनका सम्बन्ध नित्यधाम गोलोक धाम से है। प्रकट लीला के रसास्वादन के लिए ही यह दोनों तीर्थ साकार हुए हैं , जहाँ निरंतर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण एवं उनकी आत्म छवि श्रीराधा और श्रीराधा पदकिंकरी श्रीगोपीजनों के निर्मल सम-उज्जवल प्रेम की रस निर्झरिणी प्रवाहित होती रहती है तथा नित नूतन निकुञ्ज विहार लीला संपादित होती रहती है–

🐚अनुदिनमतिरंगै: प्रेममत्तालिसङघै-
🐚र्वरसर निजगन्धैर्हारि-वारि-प्रपूर्णे।
🐚विहरत इह यस्मिन् दम्पती तो प्रमत्तौ।
🐚तदति सुरभि राधाकुण्डमेवाश्रयो मे।।

🌿🌹प्रिया-प्रियतम का अति प्रिय श्रीराधाकुण्ड दिव्य रस से परिपूर्ण है। प्रिया-प्रियतम का प्रेमानुराग ही श्रीराधाकुण्ड की रस तरंगों के रूप में उच्छलित हो रहा है। इस प्रकार यह दिव्य कुण्ड युगल सरकार के प्रेम रस माधुर्य का स्त्रोत बनकर इस भूमण्डल पर प्रकट है। इसी कुण्ड को केंद्र मानकर प्रिया-प्रियतम श्रीकृष्ण तथा श्रीराधा अपनी नित्य सहचरी सखियों के साथ रस विहार में निमग्न रहते हैं।

🌹🌿यह तीर्थ उस नित्यधाम गोलोक धाम का द्वार है। इसलिए श्रीराधाकुण्ड जाना चाहिए। बार-बार जाना चाहिए। क्यों कि हमारे जाने से द्वार खटखटा उठेगा और कभी तो किशोरी कृपा करुणा भरे हृदय खोलेगी और हमें हमारे जीवन को परम सौभाग्य प्रदान करेंगी। या अपनी कायव्यूहस्वरूपा गोपिजनों से कहेंगी कि अब तो द्वार पर बहुत देर से प्रतीक्षा कर रही है और करुणार्द्र होकर हमें अपनी निकुञ्ज रस माधुरी के रसास्वादन का सुयोग प्रदान करेंगी। परन्तु प्रतीक्षा तो करो , जिसने प्रतीक्षा को अपनी साधना का आधार बना लिया है , वही प्रिया-प्रियतम की मधुर झांकी का दर्शन प्राप्त कर सका है।

✨ श्रीराधारमण दासी परिकर ✨
🐚  श्रीराधाकुण्डमेवाश्रयो मे  🐚

सेवा कुञ्ज और निधिवन

स्थान - सेवाकुंज को निकुंज वन या निधिवन भी कहते हैं। रासलीला के श्रम से व्यथित राधाजी की भगवान् द्वारा यह सेवा किए जाने के कारण इस स्थान का नाम सेवाकुंज पडा। सेवाकुंज वृंदावन के प्राचीन दर्शनीय स्थलों में से एक है। राधादामोदर जी मन्दिर के निकट ही कुछ पूर्व-दक्षिण कोण में यह स्थान स्थित है।
स्थापना - गोस्वामी श्रीहितहरिवंश जी ने सन 1590 में अन्य अनेक लीला स्थलों के साथ इसे भी प्रकट किया था।
श्री विग्रह - यहाँ एक छोटे-से मन्दिर में राधा जी के चित्रपट की पूजा होती है।लता दु्रमों से आच्छादित सेवाकुंज के मध्य में एक भव्य मंदिर है, जिसमें श्रीकृष्ण राधाजी के चरण दबाते हुए अति सुंदर रूप में विराजमान है। राधाजी की ललितादि सखियों के भी चित्रपट मंदिर की शोभा बढा रहे हैं। सेवा कुंज में ललिता-कुण्ड है। जहाँ रास के समय ललिताजी को प्यास लगने पर कृष्ण ने अपनी वेणु(वंशी) से खोदकर एक सुन्दर कुण्ड को प्रकट किया। जिसके सुशीतल मीठे जल से सखियों के साथ ललिता जी ने जलपान किया था।सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, जनश्रुति है कि यहाँ आज भी नित्य रात्रि को रासलीला होती है।

निधि वन जी का इतिहास
वृंदावन श्यामा जू और श्रीकुंजविहारीका निज धाम है. यहां राधा-कृष्ण की प्रेमरस-धाराबहती रहती है. मान्यता है कि चिरयुवाप्रिय-प्रियतम श्रीधामवृंदावन में सदैव विहार में संलग्न रहते हैं. यहां निधिवन को समस्त वनों का राजा माना गया है, इसलिए इनको श्रीनिधि वनराज कहा जाता है. पंद्रहवीं शताब्दी में सखी-संप्रदाय के प्रवर्तक संगीत सम्राट तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जब वृंदावन आए, तब उन्होंने निधिवन को अपनी साधनास्थली बनाया.
ऐसा कहा जाता है कि स्वामी हरिदासनिधिवन में कुंजबिहारी को अपने संगीत से रिझाते हुए जब तानपूरे पर राग छेडते थे, तब राधा-कृष्ण प्रसन्न होकर रास रचाने लग जाते थे. यह रास-लीला उनके शिष्यों को नहीं दिखती थी. विहार पंचमी को लेकर कथा है कि अपने भतीजे और परमप्रिय शिष्य वीठलविपुलजी के अनुरोध पर उनके जन्मदिवस मार्गशीर्ष-शुक्ल-पंचमी के दिन स्वामी जी ने जैसे ही तान छेडी, वैसे ही श्यामा-श्याम अवतरित हो गए. स्वामीजी ने राधा जी से प्रार्थना की वे कुंजविहारी में ऐसे समा जाएं, जैसे बादल में बिजली. स्वामी जी के आग्रह पर प्रियाजी अपने प्रियतम में समाहित हो गई. इस प्रकार युगल सरकार की सम्मिलित छवि बांकेबिहारीके रूप में मूर्तिमान हो गई और अगहन सुदी पंचमी (मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी) विहार पंचमी के नाम से प्रसिद्ध हो गई.
निधिवन में श्यामा-श्यामसुंदर के नित्य विहार के विषय में स्वामी हरिदासजी द्वारा रचित काव्य ग्रंथ केलिमाल पर्याप्त प्रकाश डालता है. 110पदों वाला यह काव्य वस्तुत:स्वामीजी के द्वारा समय-समय पर गाये गए ध्रुपदोंका संकलन है, जिनमें कुंजबिहारीके नित्य विहार का अतिसूक्ष्मएवं गूढ भावांकन है.
"माई री सहज जोरी प्रकट भई जु रंग की गौर श्याम धन दामिनी जैसे !
प्रथम हूँ हुती अबहूँ आगे हूँ रहिहै ना ट रिहै तैसे !
अंग अंग की उजराई सुधराई चतुराई सुंदरता ऐसे !
श्री हरि दास के स्वामी श्यामा कुंजबिहारी सम वैसे वैसे " !
ऐसी कहा जाता है निधिवन के सारी लताये गोपियाँ है जो एक दूसरे कि बाहों में बाहें डाले खड़ी है जब रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लताये गोपियाँ बन जाती है,और फिर रास लीला आरंभ होती है,इस रास लीला को कोई नहीं देख सकता,दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी,जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है,सब जीव जंतु बंदर अपने आप निधिवन में चले जाते है एक परिंदा भी फिर वहाँ पर नहीं रुकता यहाँ तक कि जमीन के अंदर के जीव चीटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते है रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की "परम दिव्यातिदिव्य लीला" है कोई साधारण व्यक्ति या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता. जो बड़े बड़े संत है उन्हें निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है.
जब रास करते करते राधा रानी जी थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण दबाते है. और रात्रि में शयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ पुजारी जी जल का पात्र, पान,फुल और प्रसाद रखते है, और जब सुबह पट खोलते है तो जल पीला मिलता है पान चबाया हुआ मिलता है और फूल बिखरे हुए मिलते है.
एक बार की बात है जब एक व्यक्ति रास लीला देखने के लिए निधिवन में झाडियों में छिपकर बैठ गया.जब सुबह हुई तो वह व्यक्ति निधिवन के बाहर विक्षिप्त अवस्था में पड़ा मिला लोगो ने उससे पूंछा पर वह कुछ भी नहीं बोला सात दिन तक उसने ना कुछ खाया ना पिया और ना ही कुछ बोला सात दिन बाद उसने एक कागज पर लिखा कि मेने राधा रानी और बिहारी जी को रास लीला करते अपनी इन आँखों से देखा है और इतना लिखकर वह मर गया. क्योकि एक तो कोई उनकी उस लीला को देख नहीं सकता और कोई अगर देख लेता है तो फिर वह इस जगत का नहीं रहता.
हमने जो संतो के श्री मुख से सुना और पढ़ा उसी को लिखने कि छोटी सी कोशिश है क्योकि उस दिव्यातिदिव्य लीला के बारे में और निधिवन के बारे में हम और हमारे शब्द पर्याप्त नहीं है राधा रानी और बिहारी जी जैसे अनंत है अपार है वैसे ही उनकी लीलाएँ भी अनंत और अपार है.
"जय जय श्री राधे"