त्यागस्वरूप अनुराग-महासागर
श्रीव्रजांगनाओं के प्रेम में कोई भी उपाधि, आवरण या किसी प्रकार का कोई अन्य हेतु नहीं है। वहाँ न ऐश्वर्यज्ञान है, न धर्माधर्मज्ञान है, न भाव-उत्पादन के लिये रूप-गुणादि की आवश्यकता या स्मृति है और न स्वसुखानुसंधान ही है। जो रमण-रमणी-बोध कान्ताभाव का जीवनस्वरूप है - व्रजांगनाओं के पवित्र प्रेम में उसका भी अभाव है।
वहाँ है केवल और केवल सहज परम त्यागस्वरूप अनुराग-महासागर का महाप्लावन और व्रजांगनाएँ हैं नित्य निरन्तर उसी में पूर्णतया निमग्न, उसमें अपने को सर्वथा खोयी हुई। उनकी प्रत्येक गतिविधि, प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक क्रिया सर्वथा श्रीकृष्णसुखमय, श्रीकृष्णानुराग की ही एकमात्र अभिव्यक्ति है। जिस परमानन्दमयी शक्ति से परात्पर तत्त्व - ब्रह्म अनादिकाल से सदा ही आनन्दी है, श्रीराधा उसी परमानन्दमयी शक्ति का अनादि मूर्त विग्रह है। वे परमानन्दमयी भगवत्स्वरूपा पराशक्ति ही कायव्यूहस्वरूप में असंख्य मूर्तियों में प्रकट होकर स्वयं रसराज को अत्यन्त चमत्कारपूर्ण परमानन्द प्रदान करती रहती हैं।
अनादि-अनन्तकाल श्रीराधा की यह स्वरूपानुबन्धिनी कृष्णानुकूलता - कृष्ण-सुखप्रदान की पराकाष्ठा उत्तरोत्तर वर्धमान रहती है, यही परमाश्चर्य है। श्रीराधा-कृष्ण का यह मधुरतम लीलाविलास प्राकृत नीच कामोपभोग नहीं है, यह केवल कृष्णसुखमयी प्रीति का अनुभाव है। यह भगवत्प्रीति भगवत्स्वरूपा ह्लादिनी का ही परिपाक-विशेष है। जब तक प्राकृत जीवगत काम के संस्कार या इस प्रकार का कोई कामजनित पुरुष या नारीरूप का अभिमान रहेगा, तब तक कायव्यूहरूपा व्रजांगनाओं से समन्वित श्रीराधा और रसराज भगवान की दिव्य मधुरतम प्रेमलीला का रहस्य समझ में नहीं आ सकता। - भाई जी श्री ...
जय जय श्यामाश्याम जी ।
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