Monday, 6 June 2016

प्रेम और रूप भाग 1

प्रेम और रूप
भाग 1
प्रेम के समान रूप-सौन्‍दर्य -भी अनिर्देश्‍य तत्‍व है। भारतीय -साहित्‍य में सौन्‍दर्य संबन्‍धी अधिक ऊहापोह नहीं मिलती। इसका कारण शायद यह हो कि यहां सौन्‍दर्य ‘रस’ का अंग माना जाता है और भारतीय विचारकों ने ‘रस के संबंध में विस्‍तृत विचार करने के बाद, सौन्‍दर्य पर विचार करना अनावश्‍यक समझा है। सौन्‍दर्य की यह प्राचीन परिभाषा प्रसिद्ध है, ‘क्षणे-क्षणे यन्‍नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया:’ क्षण-क्षण में जो नवत्‍व धारण करता है वही रमणीय है। इसके अतिरिक्‍त श्री रूप गोस्‍वामी ने अपने ‘भक्ति रसामृत सिन्‍धु[1] में कहा है-‘भवेत्‍सौन्‍दर्य-मगानां सन्निवेशो यथोचितम्’ अर्थात् अंगों का यथोचित सन्निवेश ही सौन्‍दर्य है।

इन दोनों उक्तियों में सौन्‍दर्य के केवल एक-एक अंग का ही परिचय मिलता है, अत: संपूर्ण सौन्‍दर्य-तत्‍व को समझने में यह अधिक सहायक नहीं होती है।

पाश्‍चात्‍य मनीषियों ने सौन्‍दर्य पर विस्‍तृत विचार किया है, किन्‍तु वे भी सौन्‍दर्य की पूरी परिभाषा देने में असमर्थ रहे हैं। वहां जिन विद्धानों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सौन्‍दर्य पर विचार किया है, उनमे से कुछ उसको वस्‍तुगत मानते हैं और कुछ ने सौन्‍दर्य-बोध को अंत:करण का एक धर्म माना है। आध्‍यात्मिक दृष्टिकोण वाले विद्वानों ने सौन्‍दर्य को न तो द्दश्‍य-गत माना है और न द्रष्‍टा के अन्‍त:करण-गत। वे सौन्‍दर्य को कोई अतीन्द्रिय वस्‍तु मानते हैं जो सुन्‍दर कहे जाने वाले पदार्थो में प्रतिभासित होती है। इस वस्‍तु के कारण ही भौतिक द्दश्‍य सुन्‍दर दिखाई देते हैं। यह अ‍तीन्द्रिय वस्‍तु क्‍या है ? इसका उत्‍तर हर विचारक भिन्‍न देता है।

आध्‍यात्मिक विचारकों में से अनेक भगवान् और सौन्‍दर्य को अभिन्‍न मानते हैं और सुन्‍दर वस्‍तु-समूह में भगवान के सौन्‍दर्य को ही प्रतिभासित बतलाते हैं। किन्‍तु सौन्‍दर्य और भगवान को एक बतला देने से सौन्‍दर्य-संबंधी जिस जिज्ञासा पूर्णतया शांत नहीं होती। प्रश्‍न यह उठता है कि यदि भगवान ही संपूर्ण सौन्‍दर्य के अधिष्‍ठान हैं और सुन्‍दर दिखलाई देनेवाली वस्‍तुएं उन ही की सौन्‍दर्य -रश्मि से आलोकि हैं, तो फिर सौन्‍दर्य की प्रतीति सब लोगों को समान क्‍यों नहीं होती ? सौन्‍दर्य के दर्शन से जहां एक व्‍यक्ति आनंद-विभोर बन जाता है, वहां दूसरे के चित्‍त में मामूली-सी विक्रिया होती है। इससे सिद्ध होता है कि सौन्‍दर्य की प्रतीति बहुत अंशो में द्रष्‍टा के अंत:करण पर आधारित है। वैज्ञानिकों की भांति सौन्‍दर्य द्रष्‍टा के अंतकरण का धर्म-विशेष तो नहीं माना जा सकता, क्‍योंकि वह अनेक अंशों में द्दश्‍य के गठन-प्रकार पर अबलंवित रहता है। सुन्‍दर वस्‍तु का गठन विशेष प्रकार से होता है। जिन वस्‍तुओं को हम सुन्‍दर कहते हैं उनमें एकत्‍व, सामजस्‍य, अनुपात, शुद्धता, आरोह-अवरोह ( रिथ्‍म ) सुचारू-विन्‍यास आदि कुछ बाह्य गुण दिखलाई पड़ते हैं। अत: सौन्‍दर्य की परिभाषा ऐसी होनी चाहिये जिसमें द्रष्‍टा, द्दश्‍य और ‘अतीन्द्रिय-वस्‍तु‘ तीनों को उचित स्‍थान मिल सके।
राधावल्‍लभीय विचारकों ने ऐसी ही परिभाषा देने की चेष्‍टा की है। इनका सौन्‍दर्य-संबन्‍धी एक विशेश दृष्टिकोण है जो नवीन होने के साथ स्‍वभाविक भी है। हम देखते हैं कि सौन्‍दर्य का बोध सरस चित्‍त में ही होता है; नीरस व्‍यक्ति उसका यथोचित्‍त ग्रहण नहीं कर पाता। सरसता के तारतम्‍य के साथ सौन्‍दर्य-बोध का तारतम्‍य देखा जाता है। प्रेमवान चित्‍त ही सरस होता है और प्रेमी व्‍यक्ति ही सौन्‍दर्य का सम्‍यक् आस्‍वाद कर सकता है। इससे प्रतीत होता है कि प्रेम और सौन्‍दर्य में कोई सहज संबंध है। प्रेम के बिना जिस प्रकार सौन्‍दर्य की सम्‍यक् प्रतीति नहीं होती, उसी प्रकार सौन्‍दर्य के बिना प्रेम सम्‍यक् रूप से आस्‍वादनीय नहीं बनता।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रेम और सौन्‍दर्य का ग्रहण एक काम-वृत्ति के द्वारा ही होता है। प्रेम को तो सभी मनोवैज्ञानिक काम-वृत्ति का परिपाक मानते हैं। सौन्‍दर्य को इस वृत्ति से संबधित नहीं किया गया है किन्‍तु मनुष्‍य रचित सौंन्‍दर्य-को कई आधुनिक मनोवैज्ञानिक काम वृत्ति का ही विकास मानते हैं। अब रह जाता है प्राकृतिक सौन्‍दर्य और नैतिक गुणों का सौन्‍दर्य। इनका ग्रहण भी सहृदय व्‍यक्ति ही करता है। अत: यह दोनों भी मनुष्‍य की सहज प्रेम वृत्ति से ही संबंधित मानने चाहिये।

प्रेम और सौन्‍दर्य के इस नित्‍य एवं सहज साहचर्य को देखकर राधावल्‍लभीय विचारकों ने निर्णय किया है कि यह दोनों किसी एक ही तत्‍व की दो अभिव्‍यक्तियां हैं और वह तत्‍व परात्‍पर प्रेम किंवा ‘हित’ है। परात्‍पर प्रेम ही प्रेम और सौन्‍दर्य के दो रूपों में नित्‍य व्‍यक्‍त है। एक ही तत्‍व के दो रूप होने के कारण यह दोनों स्‍वभावत: परस्‍पर-संबधित हैं। इन दोनों में भोक्‍ता-भोग्‍य का संबंध माना गया है। प्रेम भोक्‍ता है और सौन्‍दर्य भोग्‍य।

प्रेम और सौन्‍दर्य का प्रथम परिचय हमको लोक में होता है। यहां प्रत्‍यक्ष रूप से सौन्‍दर्य भोग्‍य होता है और मनुष्‍य की प्रेम-वृत्ति उसकी भोक्‍ता। यह दोनों सहज-रूप से एक दूसरे की ओर आकृष्‍ट भी रहते हैं, किन्‍तु देश-काल-पात्र की स्‍थूल मर्यादायें यहां इस बात को स्‍पष्‍ट नहीं होने देती कि ये दोनों एक ही प्रेम-तत्‍व के दो रूप हैं और स्‍वभावत: एक - दूसरे से नित्‍य-संबंधित हैं।

कलाकार, कवि और गायक अपनी कृतियों में, प्रतिभा के बल से, स्‍थूलता का अतिक्रमण करके प्रेम और सौन्‍दर्य को एक सूत्र में ग्रथित करने की चेष्‍टा करते हैं। ताजमहल के कलाकार ने शाहजहां के प्रेम और मुमताज बेगम के सौन्‍दर्य को मिलाकर इस अनुपम कला कृति की रचना की है, इसीलिये, इसके दर्शन से एक अखंड प्रेम-सौन्‍दर्य गरिमा की अनुभूति हमको होती है। कवि और गायक की भी वही कृतियां उत्‍तम मानी जाती हैं जिनमें प्रेम के साथ सौन्‍दर्य की और सौन्‍दर्य के साथ प्रेम की व्‍यंजना होती है।
प्रेम और सौन्‍दर्य की तीसरी स्थिति परात्‍पर प्रेम की उस अनाद्यनंत आनदमयी लीला में है जिसको ‘नित्‍य-विहार’ कहा जात है। इस स्थिति में पहुँच कर प्रेम और सौन्‍दर्य एक-दूसरे के साथ ‘एक रस’ बन जाते हैं। ‘एक रस’ शब्‍द का कोष-लब्‍ध अर्थ है-एक भाव, एक रूचि, एक स्‍वाद। इसका मतलब यह हुआ कि नित्‍य-विहार में प्रेम और सौन्‍दर्य एक ही भाव से आवेशित, एक ही रूचि से प्रेशर और एक ही स्‍वाद से पूर्ण रहते हैं। श्री ध्रुवदास ने कहा है कि प्रेम और सौन्‍दर्य की एक रस स्थिति वृन्‍दावन की सघन कुंजो को छोड़कर तीनों लोकों में कहीं नहीं है-

ढूंढि फिरै त्रैलोक में बसत कहूँ ध्रुव नाहिं।
प्रेम रूप दोड एक रस बतस निकुजनि माहिं।।
जय जय श्यामाश्याम ।।।
क्रमशः

No comments:

Post a Comment