ललिता सखी द्वारा वियोग-वर्णन भाग 1
अपनी स्वामिनी, अपनी सखी, श्याम-प्राणाधिका श्रीराधिका को कैसे समझाऊँ? अक्रूर क्या आया, यहाँ एक दारुण दुःस्वप्न दे गया। ऐसा दुःस्वप्न कि उसको असत्य भी नहीं कह पाती हूँ और वह सत्य है, यह स्वीकार करने का भी काई साधन नहीं है। श्याम-सुन्दर नहीं हैं व्रज में- यह भी क्या कोई स्वीकार करने योग्य बात है; किंतु वे मथुरा नहीं गये तो मैया व्रजेश्वरी और मेरी यूथेश्वरी श्यामा की विह्वलता क्यों है? मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मुझे इसका समाधान देगा?
'हाय नीलमणि! मैं क्या जानती थी कि तू मेरा नहीं है!' व्रजेश्वरी का यह आर्तनाद- 'मैंने तुझे बाँध दिया ऊखल में। मैं तुझे यष्टि लेकर धमकाती रही! पराये जाये पर मैं माँ का गर्व करके इतना सब अत्याचार करती चली गयी! इस हतभागिनी यशोदा को तू कभी क्षमा कर पायेगा?'
व्रजराज-सदन का यह क्रन्दन सुना जाता है? हृदय फट नहीं जाता- पता नहीं किस वज्र से बना है। हम सब चली जाती हैं तो मैया हमको सम्हालने में अपनी व्यथा भूल जाती हैं। उनके अंक में किञ्चित शांति मिलती है। लेकिन अब यह भी सुलभ नहीं रहा। मेरी स्वामिनी श्रीराधा उन्मादिनी ही हो गयीं। अब इनको कहीं भी कैसे ले जाया जा सकता है।
हाय! मेरी त्रिभुवन-कमनीया स्वामिनी काया कंकालप्राय हो गयी! तप्तकुन्दन जैसा वर्ण काला पड़ने लगा और वह अलौकिक कान्ति कहाँ गयी? बाबा और मैया की यह नेत्र-पुत्तलिका से भी प्रिय अब अनेक बार मुझे ही नहीं पहिचानती और पूछती है- 'तुम कौन हो?'
'तुम्हारी चरण-सेविका ललिता।' मैं मर जाती तो यह तो नहीं कहने का समय आता; किंतु मर भी नहीं सकती। इस स्वामिनी को सम्हालेगा कौन? यह तो अब अपनी भी सुधि नहीं रखती। मुझसे ही पूछती हैं- 'मैं कौन हूँ?'
'वृहत्सानुपुर के स्वामी वृषभानु बाबा और कीर्ति मैया कुमारी श्रीराधा।' मैं ही इसे यह बतलाने को बचने वाली थी।
'राधा? राधा कौन?' यह तो ऐसे पूछती हैं जैसे किसी बहुत अपरिचित के सम्बन्ध में सोच रही हो।
'श्यामसुन्दर की सर्वस्व श्यामा!' मुझे अन्ततः मन मारकर इसे सावधान करने को यह भी कहना पड़ा।
'हाय श्यामसुन्दर!' एक चीत्कार और मूर्छा! मैं कितना बचाती हूँ कि इसे नन्दनन्दन का नाम न सुनाया जाय। इसे उनकी स्मृति न दिलायी जाय, पर बार-बार यही करना पड़ता है। न भी करूँ तो निमित्त क्या कम है? मयूर आ बैठेंगे आँगन में, कोकिल बोलेगी, पपीहा बोलेगा, श्याम-तमाल व्रज में भरे पड़े हैं, आकाश में मेघ आवेंगे ही। कोई सम्पूर्ण पृथ्वी से पीत वर्ण और नील वस्तुओं को वहिष्कृत कर दे सकता। मेरी यह उन्मादिनी सखी नन्हीं पीली तितली भी देखती है तो दौड़ पड़ती है- 'यह रहा उनके पटुके का छोर!'
अब मयूर, मेघ या श्याम तमाल देखकर- 'वे आ गये' कहकर दौड़ पड़ना, वृक्ष से लिपट जाना- अनेक बार इसके सुकुमार अंग आहत हो चुके। इसके ये नवकिसलय-कोमल चरण और रात्रि के अन्धकार में भी उठकर दौड़ पड़ती हैं कानन की ओर- 'सखि! वायु में तुलसी की गन्ध है। वे आ गये। मुझे पुकार रहे हैं! तू सुनती नहीं- वंशी के स्वर पुकार रहे हैं मुझे?'
इसके विशाल लोचन सूखने का नाम ही नहीं लेते। शरीर में इतना स्वेद आता है कि वस्त्र अनेक बार बदलवाने पड़ते हैं। जैसे सम्पूर्ण मेद स्वेद बनकर बह गया। कदम्ब-पुष्प के समान कण्टकित काया-उत्थित रोम-रोम और चाहे जब अंग-अंग पीपल-पत्र के समान काँपने लगता है। यह मूर्छा अब आती ही रहती है। यह सब न हो तो चाहे जब उठ भागती है वन की ओर। दिन-रात किसी समय की सुधि नहीं। हम सखियों को भी कम पहिचानती है। वन के विषम, कुशकण्टक भरे पथ में कुञ्जों में पागल बनी पुकारती दौड़ती है- 'प्राणनाथ! प्रियतम!'
बाबा बार-बार अश्रु भर लेते हैं। मैया हम सबकी मनुहार करती रहती हैं। उनकी यह हृदयनिधि- हमारी सर्वस्व, हम इसके चरणों को छोड़कर पृथक कैसे रह सकती हैं। हमें लज्जित करती है मैया की मनुहार। हमारी सबकी यही तो जीवन है। यह है तो हम हैं। अभी कल यह कानन में मूर्छित हो गयी। मैं कब गिरी- मुझे पता नहीं। विशाखा ने कहा था- 'ललिता! स्वामिनी गयीं! हाय, हमे सदा को छोड़ गयीं?'
सुनने के पश्चात क्या हुआ- मैं नहीं जानती। सुना पीछे कि चन्द्रावली जीजी आ गयीं। हम सब समझती थीं कि वे स्वामिनी से स्पर्धा रखती हैं; किंतु इस विपत्ति में तो वे स्नेहमयी सबको सहारा देने लगी हैं। कितनी अपार शक्ति है उनमें! उनके अन्तर में किसी-से कम दावानल दहकता होगा? लेकिन वे हैं कि अब भी सबके सामने हँस लेती हैं। कल कहीं से उन नवजलसुन्दर का चित्र उठा लायीं और हम सबको झकझोरकर, जल सिञ्चिन करके जगाया। स्वामिनी को सगी अनुजा के समान अंक में लेकर बोली- 'बहिन देख तो, यह कौन है? तनिक नेत्र तो खोल!'
स्वामिनी ने तो नेत्र खोलते ही समझा कि वे हृदयहारी सचमुच ही आ गये। मान करके मुख फेर कर बैठ गयीं। हँसकर उन्हें चन्द्रावली जीजी ने हिलाया और बोली- 'बहिन! तू क्या हम सबको मार ही देना चाहती है? तू नहीं रहेगी तो वनमाली व्रज की ओर झाकेंगे भी नहीं। तू ही हम सबकी आशा है, हमारी प्राण है।'
कितनी उमंग से, कितनी तन्मयता से, कितने प्यार से बनाया होगा वह चित्र उन्होंने। वह चित्र दे देने से जीवन दे देना कहीं अधिक सरल है, यह मैं समझती हूँ; किंतु कितनी महान हैं वे। बिना माँगे स्वयं मुझे दे गयीं- 'ललिते! तू इसे रख ले। मेरी इस बहिन को इसकी बहुत अधिक आवश्यकता है। इसे बचा किसी प्रकार। यह बची रहेगी तभी व्रज बचेगा।'
स्वामिनी तो चित्र लेकर तन्मय हो गयीं। उसी की मनुहार, श्रृंगार में लग गयीं। सचमुच इस चित्र ने इनके कम-से-कम प्राण तो बचा लिये; किंतु इनका उन्माद? चाहे जब आतुर हो उठती हैं- 'सखि, वे आ गये! सब सखियों को बुला ले। शीघ्र मेरा श्रृंगार कर दे। त्वरा कर, वे कहीं रूठकर चले न जायँ।' क्रमशः ...
No comments:
Post a Comment