Friday, 3 June 2016

माधुर्य और नित्य किशोरावस्था भाई जी

माधुर्य और नित्य किशोर अवस्था

माधुर्य
‘माधुर्य’ का अर्थ जैसे पूर्णैश्वर्यमय स्वयं-भगवान की दिव्य ‘नरलीला’ है, वैसे ही अशेष-अचिन्त्य, अतुल सौन्दर्य, लालित्य, सौशील्य, औदार्य, वैदग्ध्य आदि परम आकर्षक गुणसमूह भी हैं। वह ऐसा माधुर्य है, जो चराचर समस्त जगत के साथ ही स्वयं श्रीकृष्ण के चित्त को आकर्षित तथा विमोहित करता है। उन नराकृति परब्रह्म के नर-वपुका असमोर्ध्व सौन्दर्य, माधुर्य, वैचित्र्य, वैदग्ध्य ही उनका ‘रूपमाधुर्य’, ‘वेणुमाधुर्य’, प्रेममाधुर्य और ‘लीलामाधुर्य’ है। यह माधुर्यचतुष्टयी स्वयं भगवान व्रजेन्द्रनन्दज श्रीकृष्ण में प्रकाशित है, अन्यत्र कहीं नहीं। यही इस रूप की विशेषता है।
अखिल-अनन्त-अतुल-सौन्दर्य-सुधा-सागर, कोटि-कोटि-कंदर्प-लावण्याश्रय, रासरसिकशेखर, नित्य-निरतिशयानन्दस्वरूप, दिव्यदीप्तिच्छटाविभूषित, आत्मारामगणाकर्षी, मुनिमनमोहन भगवान श्रीकृष्ण का मधुरातिमधुर स्वरूप नित्य किशोर है। जिसके क्षणभर के लिये दृष्टि पथ में आते ही या जिसकी क्षणिक स्मृति से ही आनन्दाम्बुधि उमड़ उठता है, वह किशोर रूप धर्मी है एवं बाल्य और पैगण्ड उस नित्य-किशोर स्वरूप के धर्म हैं। पाँच वर्ष तक कौमार, दस वर्ष तक पौगण्ड और पंदह वर्ष तक कैशोर माना जाता है। इसके बाद यौवन है।

वात्सल्यरस में कौमार, सख्यरस में पौगण्ड और उज्ज्वलरस में कैशोर वय की उपादेयता है। श्रीकृष्ण का नित्य-स्वरूप किशोर है। धर्मी के बिना धर्म की सत्ता नहीं होती, अतः कैशोर के बिना बाल्य और पौगण्ड की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। वात्सल्य और सख्यरस के आवेश में नित्यकिशोर श्रीकृष्ण में क्रम से कौमार और पौगण्ड की अभिव्यक्ति होती है। इसी प्रकार श्रीराधाजी तथा उनकी कायव्यूहरूपा गोपांगनाएँ भी नित्य किशोरी हैं।
कैशोर-रूप में ही श्रीराधा और उनकी कायव्यूहरूपा स्वरूप-शक्तियों के साथ दिव्य रासलीला होती है। व्रज के अतिरिक्त कहीं भी काम कषायशून्य नहीं है। उसमें किसी-न-किसी रूप में आत्मसुख-कल्पना-गन्ध-लेश-रूप कषाय रहता ही है। परंतु श्रीराधा और उनकी कायव्यूहस्वरूपा व्रजांगनाएँ नित्य स्व-सुख-काम-लेश-कल्पना-गन्धशून्य है। एकमात्र श्रीकृष्ण-सुख के लिये उनका श्रीकृष्ण के साथ सम्बन्ध है। श्रीकृष्ण प्रेयसी व्रजांगनाओं के समस्त उद्यम, समस्त प्रयत्न केवल श्रीकृष्ण-सुख-विधान के लिये ही होते हैं।
तासां श्रीकृष्णसौख्यार्थमेव केवलमुद्यमः।[1]
व्रजांगनाओं का - विशेष रूप से श्रीराधा का जीवन केवल श्रीकृष्ण सुखमय ही है। उनका खान-पान, शयन-जागरण, व्यवहार-बर्ताव, आशा-आकांक्षा, भोग-त्याग तो सब श्रीकृष्ण के सुखार्थ हैं ही, उनकी भगवान श्रीकृष्ण के भयानक वियोग-व्यथा से पीड़ित विरह-तापदग्ध देह में प्राणों की रक्षा के लिये होने वाला आर्त क्रन्दन भी श्रीकृष्ण-सुख के लिये है। श्रीकृष्ण के वियोग में वे परम संतप्ता है, मिलन से उन्हें शीतल परमानन्द की प्राप्ति होगी; पर इस अपने दुःखनाश और आनन्दलाभ के लिये वे नहीं रोती-कराहतीं। उनके उस आर्त क्रन्दन में भी केवल श्रीकृष्ण सुख ही तात्पर्य है। वस्तुतः मिलन और वियोग - ‘सम्भोग’ और ‘विप्रलम्भ’ - दोनों ही रति हैं और दोनों में ही परमानन्द-रस की अनुभूति रहती है। संसार के प्राणी-पदार्थों के वियोग में जहाँ केवल दुःख-ही-दुःख, रोना-ही-रोना है, वहाँ भगवान के वियोग में प्रेमी के मन में प्रियतम श्रीकृष्ण की सुखरसमयी संनिधि का अनुभव होता है। वह होता है संयोग तथा वियोग दोनों में ही - संयोग में बाहर और वियोग में भीतर। वरं संयोग में जहाँ समय-स्थान आदि की निर्बाध स्थिति नहीं है, बहुत-से प्रतिबन्धक हैं और केवल एक ही स्थान पर परस्पर मिलन तथा दर्शन होते हैं, वहाँ वियोग में समय-स्थान की कोई बाधा नहीं, सर्वत्र निर्बाध स्वतन्त्र स्थिति है और एक ही जगह नहीं, उस श्रीकृष्ण वियोग के दिव्योन्माद में सर्वत्र श्रीकृष्ण का मिलन, उनके मधुर दर्शन प्राप्त होते हैं। परम् भावरस और कल्याणमय अति गोपनीय संत भाई जी श्री पोद्दार जी ।

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