Tuesday, 7 June 2016

कृष्णमना, श्रीकृष्ण-मति, कृष्णजीवना शुद्ध। , भाई जी ।।।

कृष्णमना, श्रीकृष्ण-मति, कृष्णजीवना शुद्ध।
कृष्णेन्द्रिया, सुचारु शुभ, कृष्णप्रिया विशुद्ध।।
कृष्ण-कथा मुख में सदा, कृष्ण-नाम-गुण-गान।
कृष्ण सुभूषण श्रवण शुचि, कृष्ण-गुण-निरत कान।।
कृष्ण-रूप-मधु नेत्र में, नासा कृष्ण-सगुन्ध।
कृष्ण-सुधा-रस-रसमयी रसना नित निर्बन्ध।।
कृष्ण-स्पर्श-संलग्न नित अंग बिना व्यवधान।
कृष्ण-मधुर-रस कर रहा मन अतृप्त नित पान।।
नित्य कराती श्याम को मधुर अमित-रस-पान।
नित्य पूर्ण करती सभी श्याम-काम रख ध्यान।।
श्याम-प्रेम शुचि रत्न की अमित मनोहर खान।
श्याम-सुखकरण गुण अमित अनुपम नित्य निधान।।
भीतर-बाहर पूर्ण नित सुन्दर श्याम सुजान।
दीख रहा सब श्याममय, नित नव मधुर महान।।
विश्वविमोहन श्याम की मनमोहनि रसधाम।
श्याम-चित-उन्मादिनी श्यामा दिव्य ललाम।।

श्रीराधा के स्वरूप गुण अचिन्त्यानन्त हैं। उनका वर्णन तो दूर रहा, चिन्तन भी असम्भव है। यह तो केवल एक बाह्य संकेत मात्र है और यह भी उनकी कृपा का ही सुन्दर परिणाम है।
पर वस्तुतः जितने भी महान गुण, भावों में अवान्तर भेद तथा भावों के परमोच्च स्तर आदि हैं, जिनका किसी प्रकार भी वाणी के द्वारा वर्णन अथवा चित्त के द्वारा चिन्तन हुआ है, हो सकता है, नित्याचिन्त्य-भावमयी श्रीराधा उन सभी भावों से अतीत निज महिमा में नित्य स्थित हैं। ये सब भाव आदि शाखाचन्द्र-न्याय से उनका संकेत मात्र करते हैं।

जितने सब हैं भाव विलक्षण एक-एक से उच्च उदार।
वे सब अति अभ्यन्तर होकर भी हैं बाह्य सरस व्यवहार।।
हैं वे परमादर्श पुण्यतम प्रेमराज्य के भाव महान।
मिलते हैं उनसे प्रेमास्पद प्रेष्ठरूप में श्रीभगवान।।
पर राधा स्वरूपतः बँधी न उनसे किंचित् कभी कहीं।
एक श्याम के सिवा तत्त्वतः राधा में कुछ और नहीं।।
राधा नित्य श्याम की मूरति, नहीं अन्य कुछ भावाभाव।
राधा श्याम, श्याम राधा हैं, अन्य तत्त्व का नित्य अभाव।।

‘जिनते भी ये प्रेमराज्य के एक-से-एक उच्च, विलक्षण और उदार भाव हैं, वे सभी अत्यन्त आभ्यन्तरिक होने पर भी बाह्य रस पूर्ण व्यवहार ही हैं। निश्चय ही वे परम आदर्श हैं, पवित्रतम हैं और महान हैं। उन भावों के द्वारा प्रेमास्पद श्रीभगवान प्रियतम के रूप में प्राप्त हो सकते हैं; परंतु श्रीराधाजी स्वरूपतः उन भावों में कभी किंचित भी बँधी नहीं हैं। एक श्यामसुन्दर के अतिरिक्त तत्त्वतः श्रीराधा में और कुछ है ही नहीं। श्रीराधा नित्य श्रीश्यामसुन्दर हैं और श्रीश्यामसुन्दर राधा हैं, उनमें अन्य किसी भी तत्त्व का नित्य अभाव है।’

‘स्वयं भगवान’ श्रीकृष्ण की स्वरूप भूता नित्यशक्ति, नित्य दिव्य रासेश्वरी, नित्य निकुन्जेश्वरी, श्रीकृष्णप्राणा, श्रीकृष्ण-आत्मा और साक्षात श्रीकृष्ण स्वरूपा ।
हमलोग सभी धन्य हैं, जो इस घोर काम-कलुषमय कलियुग के कलंकपूर्ण परंतु कल्पनातीत परमोत्कृष्ट परमोज्ज्वल काल में परम और चरम त्याग की प्रत्यक्ष मूर्ति श्रीराधिकाजी के पुण्य-स्मरण करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं। श्रीराधाजी की बात तो बहुत दूर, उनकी किंकरी किसी क्षुद्र-से-क्षुद्र मञ्जरी के त्यागमय जीवन का जरा-सा प्रकाश भी हमारे जीवन पर पड़ जाय तो हम धन्य जीवन-सफलजन्म हो सकते हैं। प्रार्थना कीजिये—

निन्द्य नीच पामार परम, इन्द्रिय-सुख के दास।
करते निसिदिन नरकमय विषय-समुद्र निवास।।
नरक-कीट ज्यों नरक में मूढ़ मानता मोद।
भोग-नरक में बड़े हम त्यौं कर रहे विनोद।।
नहीं दिव्य रस कल्पना, नहीं त्याग का भाव।
कुरस, विरस, नित अरस का दुखमय मन में चाव।।
हे राधे रासेश्वरी! रस की पूर्ण निधान।
हे महान महिमामयी! अमित श्याम-सुख-खान।।
पाप-ताप-हारिणि, हरणि सत्वर सभी अनर्थ।
परम दिव्य रस दायिनी पन्चम शुचि पुरुषार्थ।।
यद्यपि हैं सब भाँति हम अति अयोग्य, अघबुद्धि।
सहज कृपामयि! कीजिये पामर जनकी शुद्धि।।
अति उदार अब दीजिये हमको यह वरदान।
मिले मञ्जरी का हमें दासी दासी-स्यान।।
भजामि राधामरविन्दनेत्रां
स्मरामि राधां मधुरस्मितास्याम्।
वदामि राधां करुणाभरार्द्रां
ततो ममन्यास्ति गतिर्न कापि।।
बोलो श्रीकृष्ण प्रेम स्वरूपा श्रीराधारानी की जय जय जय!!!

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