Friday, 17 June 2016

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 4

हित रस और श्यामसुन्दर भाग 4

‘हित चतुरासी’ में श्‍यामसुन्‍दर ने अपनी देह को श्रीराधा- पद- पंकज का सहज मंदिर बतलाया है, तब पद- पंकज को निजु मंदिर पालय सखि मम देह|' [1]

भक्ति का अर्थ ‘सेवा’ है। भक्ति के उदय के साथ सेवा का चाव बढ़ता है। सेव्‍य की रुचि लेकर उसकी सेवा करना, सेवा का आदर्श माना जाता है। अपनी अपार सेवा- रुचि को श्रीराधा के आगे प्रगट करते हुए श्‍याम- सुन्‍दर कहते हैं, हे प्रिया, तुम जहां चरण रखती हो वहां मेरा मन छाया करता फि‍रता है। मेरी अनेक मुर्तियां तुम्‍हारे ऊपर चवंर ढुराती हैं, कोई तुमको पान अर्पण करती हैं, कोई दर्पण दिखाती है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की सेवायें, जैसा भी मुझे कोई बतला देता है, मैं तुम्‍हारी रुचि लेकर करता रहता हूं। इस प्रकार, हर एक उपाय से मैं तुम्‍हारी प्रसन्नता प्राप्त करने की चेष्टा करता हूं।'

जहां- जहां चरण परत प्‍यारी जू तेरे। तहां- तहां मेरौ मन करत फिरत परछांही। बहुत मूरित मेरी चंवर ढुरावत एकोऊ बीरी खबाबत, एक आरसी लै जाहीं। और सेवा बहुत भांतिन की जैसी ये कहैं कोऊ तैसी ये करौं ज्‍यौं रुचि जानौ जाही। श्री हरिदास के स्‍वामी श्‍यामा कौ भलौ मनावत दाई उपाई।[2]

श्रीराधा- नाम का माहात्‍म्‍य ख्‍यापन करते हुए हिताचार्य ने कहा है ‘जिसका स्‍वयं श्रीहरि प्रेम पूर्वक श्रवण करते हैं, जाप करते हैं, सखी जनों में सहर्ष गान करते हैं त‍था प्रेमाश्रु- पूर्ण मुख से उच्‍चारण करते हैं, वह अमृत-रूप-राधा-नाम मेरा जीवन है।’

प्रेम्‍णाअकर्णयते,जपत्‍यथ,मुदा गायत्‍यथाअलिण्‍वयं।
जल्‍पत्‍यश्‍श्रु मुखो हरिस्‍तदमृतं राधेति मे जीवनम्।।

'द्वादश-यश’- कार स्‍वामी चतुर्भुजदासजी ने अपने ‘श्रीराधा प्रताप यश’ में श्‍याम सुन्‍दर के द्वारा श्री राधा के प्रति श्रवणादिकों का प्रेममय आचरण बड़े सुन्‍दर ढंग से दिखलाया है। प्रथम तीन के संबंध में वे कहते हैं,

श्रवणानि सुजस सखिनु पहं सुनत, राधा नाम रैन-दिन भनत।
सुमिरन मन विसरै नहीं।

श्री राधा के अन्‍त्‍यन्‍त सुन्‍दर और सुकुमार चरणों पर रीझ कर श्‍याम सुन्‍दर उनमें जो जावक के द्वारा चित्र-रचना करते हैं वही ‘पाद-सेवन’ बन जाता है और प्रिया का नख-शिख श्रृंगार करते हैं वही उनका ‘अर्चन’ होता है।

जावक रचि चरननि जु बनाई, नूपुर माल रुचिर पहिनाई।
प्रेम सु प्रताप जस।।
मृगमद तिलक देत रचि भाल, पहिरावत पहुपनि की माल।
अपने कर कबरी गुथत।।
भूषण पट पहिरावत आइ, मुख बीरी हरि देत बनाइ।
दर्पन जै जु दिखावहीं।।
देखि रूप डारत तृन तोरि। .............................
वंदन, दास्‍य और आत्‍म निवेदन तो स्‍पष्ट ही है।
..............................वंदत चरण सीस कर जोरि।
दासंतन सब विधि करत।।
तन, मन, प्रान समर्पन कियौ, मीन-नीर ज्‍यौं, त्‍यौं पन लियौ।
श्रीराधा सु प्रताप जस।।

इस प्रकार, नवधा-भक्ति का सांगोपांग निर्वाह करने के बाद श्‍यामसुन्‍दर अपनी प्रियतमा से यह वरदान मांगते हैं।

मांगत दान मान जिन करौ, देहु बचन मेरे कर धरौ।
निर्तत अति आनंद ह्रैं।।
क्रमशः ...
जय जय श्यामाश्याम ।।

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