Thursday, 9 June 2016

सच्चिदानन्द-शरीर श्रीकृष्ण और गोपांगनाएँ 1

सच्चिदानन्द-शरीर श्रीकृष्ण और गोपांगनाएँ
जो जिस विषय की कामना वाले होते हैं, वे उस विषय में ही दीन हैं। अर्थकामी अति दरिद्र एक पैसे के लिये दीन-दरिद्र है तो सम्राट सारी पृथ्वी का राज्य प्राप्त करने के लिये दीन-दरिद्र है। दरिद्र तथा सम्राट दोनों ही कामना के कारण दीन हैं और उनकी यह दीनता कभी मिट नहीं सकती; क्योंकि समस्त प्राकृत विषयभोग अपूर्ण और विनाशी हैं।

अतएव नयी-नयी कामना उठती रहती है, कामना का पूर्णतया निःशेष पूर्ति कभी होती ही नहीं; और जब तक कामना है, तब तक दीनता है। एकमात्र भगवान ही नित्य पूर्णकाम हैं, वे कदापि दीन नहीं हैं। उनमें जो यह भक्तों के प्रेमरस के आस्वादन की कामना-सी देखी जाती है, वह कामना नहीं है, वह तो स्वरूप-वितरण के लिये उनका प्रेम-अनुग्रह है; क्योंकि अपना ही स्वरूपभूत रस प्रेमियों को वितरण करके उनसे वे वही रस लेते हैं और जितना लेते हैं, उससे असंख्यगुना अधिक देते रहते है। जगत को पवित्र प्रेम का पाठ सिखाते हुए वे त्याग तथा केवल ‘देने’ की ही महत्ता का परिस्थापन करते हैं। जगत के विषयानुरागी मायाग्रस्त प्राणि मात्र भीषण कामानल से जल रहे हैं।

काम का अर्थ है - जो पाञ्चभौतिक शरीर अन्न-जलादि के द्वारा संवर्धित है और मल-मूत्र जिसका परिणाम है, उसके तृप्त करने की इच्छा। प्राकृत वस्तु में कभी विशुद्ध रस का उदय नहीं हो सकता। जो लोग प्राकृत वस्तुओं में रस मानते हैं, वे वस्तुतः भ्रम में हैं। कृमि, भस्म या विष्ठा जिस नश्वर प्राकृत शरीर का परिणाम है, उसमें कभी रस नहीं उत्पन्न होता, विरस या कुरस का ही उदय होता है। दिव्यरस के स्वरूप तो एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उनके सिवा किसी में भी कभी परकीया-रस की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। जो वैसा मानते-करते हैं, वे निश्चय ही नरकगामी होते हैं।
वस्तुतः लौकिक स्वकीया-रस भी वह दिव्य रस नहीं है। अतएव नित्य सच्चिदानन्दघनविग्रह भगवान और उनकी स्वरूपशक्तियाँ जो श्रीकृष्ण के रमण - स्वरूप-वितरण-लीला की उपकरणरूपा हैं, वे अन्न-जलादि के द्वारा परिपुष्ट प्राकृत देह से युक्त नहीं हैं। इसलिये उनका यह रासविलास, उन देवियों की सर्वात्मसमर्पणक्रिया और भगवान का उन्हें स्वीकार करना कदापि लौकिक कामविलास नहीं है। वह विशुद्ध रस का ही विशुद्ध विलास है। नित्य पूर्णकाम, पूर्णैश्वर्यरूप भगवान में सर्वात्मसमर्पण करना ही परम धर्म है और यही जीव का परम सौभाग्य है। इसमें नारी-पुरुष का भेद नहीं है। भगवान सबके आत्मा हैं, सब देवियों के पतियों के भी आत्मा हैं, सबके परम आधार हैं; अतः उनमें अनन्य अनुराग करना ही चरम पुरुषार्थ है।
जय जय श्यामाश्याम ।।

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