प्रेम और रूप
भाग 2 ...
श्री ध्रुवदास ने कहा है कि प्रेम और सौन्दर्य की एक रस स्थिति वृन्दावन की सघन कुंजो को छोड़कर तीनों लोकों में कहीं नहीं है-
ढूंढि फिरै त्रैलोक में बसत कहूँ ध्रुव नाहिं।
प्रेम रूप दोड एक रस बतस निकुजनि माहिं।।
वास्तव में हम, लोक में और लोक-संबंधित काव्य में, प्रेम और सौन्दर्य की एक-रस स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते। यहां इनका एक साथ व्यंजित हो जाना ही, बड़ी उपलब्धि है। प्रेम-स्वरूप वृन्दावन की सघन कुंजों में प्रेम की यह दो सहज अभिव्यक्तियां-प्रेम और सौन्दर्य-प्रेम के ही मधुर बंधन में बँधती हैं और परस्पर एक भाव, एक स्वाद एक रूचि रहकर प्रेम-सौन्दर्य रस का पान करती हैं।सौन्दर्य का फूल-अत्यन्त उन्नत और उज्ज्वल रूप श्री राधा हैं और प्रेम का फूल श्यामसुन्दर हैं। यह दोनों अनुराग के बाग में खिल रहे हैा और दोनों में राग का रूचिकारी रंग बढ़ा हुआ हैं-
रूप कौ फल रँगीली बिहारिनि, प्रेम कौ फूल रसीलौ बिहारी।
फूलि रहे अनुराग के बाग में, राग कौ रंग बढ्यौ रूचिकारी।।
भोक्ता-भोग्य के अपने पृथक रूपों में स्थित रहते हुए प्रेम और सौन्दर्य, यहां, एक दूसरे में इस प्रकार ओत-प्रोत रहते हैं कि हम इन दोनों को प्रेम भी कह सकते हैं और सौन्दर्य भी। ध्रुवदास जी दोनों रूपों को, पहिले तो, यह कह कर निर्दिष्ट कर देते हैं कि भोक्ता-रूप घनश्याम प्रेम के तमाल हैा और भोग्य-रूपा श्री राधा रूप की बेलि हैं, और फिर दोनें को, एक स्थान में प्रेम-शय्या पर परस्पर उलझी हुई रूप की दो बेलियां कहते हैं और दूसरे स्थान में उनको सहज प्रेम की दो सीमाएं बतलाते हैं -‘सहज प्रेम की सींव दोउ नव किशोरवर जोर’।
वृन्दावन-रस के रसिक सौन्दर्य को रूप कहते हैं। रूप से इनका तात्पर्य आकृतिवान सौन्दर्य से है। रूप से इनका तात्पर्य आकृतिवान सौन्दर्य से हें प्रेम और सौन्दर्य आकृति-हीन भी होते हैं, जैसे प्रेम -वासना और स्वर-सौन्दर्य, किंन्तु आकृति-हीन प्रेम-वासना आकृतिवान प्रिय-पदार्थ के भोग से ही निबिड़ अनुभूति कराती है। अत: प्रेम और सौन्दर्य की निबिड अनुभूतियां आकृति-सापेक्ष होती हैं। इसके विरूद्ध विज्ञानानंद आकृति हीन होता है, क्योंकि उसमें ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान का लय हो जाता है। प्रेमानंद किंवा प्रेम-सौनदर्यानंद में भोक्ता-भोग्य सदैव प्रकाशित रहकर उसके आस्वादनीय बनाये रखते है। विज्ञानानंद कभी आस्वाद्य किंवा रस नहीं बनता , इसलिेय उसमें आकृति का निषेध किया जा सकता है। आस्वाद के लिये भोक्ता -भोग्य एवं उनकी आकृति और गुण अनिवार्य हैं और इनको मनुष्य-कल्पित अथवा माया-कल्पित कहकर छोड़ा नहीं जा सकता। रसरूपता को प्राप्त होकर आकृति और गुण उस महा-आनंद के अंग बन जाते हैं जिसको सभी प्रेमीगण विज्ञानानंद से कहीं अधिक श्रेष्ठ बतलाते हैं। प्रेमियों ने तो ब्रह्मानंद को प्रेमानंद का सबसे बड़ा आवरण माना है; क्योंकि प्रेमानंद के आधारभूत आकृति और गुण ब्रह्मानंद में माया-कल्पित कह कर छोड़ दिये जाते हैं-
ब्रह्म जोति तेज जहां, जोगेस्वर घरैं ध्यान।
ताही कौ आवरण तहां, नहिं पावै कोऊ जान।।
बिनु रसिकनि वृन्दाविपिन, को है सकत निहार।
ब्रह्म कोटि ऐस्वर्ज के, वैभव की तहां बार।।
जय जय श्यामाश्याम ।।
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