Saturday, 11 June 2016

आनन्द की तरतमता और सर्वोच्च प्रेमानन्द

आनन्द की तरतमता और सर्वोच्च प्रेमानन्द

श्रुति में लौकिक आनन्द ब्रह्मानन्द की तरतमता के विषय में विचार किया गया है। उससे यह सिद्ध होता है कि आनन्द ‘निर्विशेष’ नहीं है, उसमें तारतम्य है। तैत्तिरीय-उपनिषद में कहा गया है। कि जो मनुष्य युवक हो, साधुस्वभाव हो, वेदों का अध्ययन कर चुका हो, कर्मकुशल हो, दृढ़ - स्वस्थ-शरीर हो, बलवान हो और धन-वैभव से पणिपूर्ण सारी पृथ्वी जिसके अधिकार में हो, उसे जो आनन्द प्राप्त होता है, वह मनुष्यलोक का एक श्रेष्ठ आनन्द है। इस मनुष्यानन्द से सौगुना आनन्द मनुष्य-गन्धर्व (जो कर्मसाधना के द्वारा गन्धर्वत्व को प्राप्त हुआ हो) को है। मनुष्य-गन्धर्वों के आनन्द से सौगुना आनन्द देवगन्धर्व (जन्म से गन्धर्व) को है।

इससे सौगुना आनन्द चिरस्थायी पितृलोक के पितरों को है। उससे सौगुना आनन्द आजानज (शास्त्रोक्त कर्मविशेष के अनुष्ठान से जो देवलोक में उत्पन्न हुए हों) नामक देवताओं को है। उसका सौगुना कर्मदेवों को, उससे सौगुना (आठ वसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य एवं अश्विनीकुमार) देवताओं को, उनसे सौगुना इन्द्र को, इन्द्र से सौगुना बृहस्पति को और उससे सौगुना प्रजापति ब्रह्मा को है। पर ये एक-से-एक बढ़कर समस्त आनन्द ‘ब्रह्मानन्द’ की तुलना में सर्वथा तुच्छ हैं। उस ब्रह्मानन्द का यथार्थ परिणाम हो ही नहीं सकता। इसी से श्रुति कहती है।

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणों विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति।[1]
‘मन के सहित वाणी आदि सभी इन्द्रियाँ उसे न पाकर जहाँ से लौट आती हैं, उस ब्रह्म के आनन्द का ज्ञाता विद्वान किसी से भी भय नहीं करता।’
उस ब्रह्मानन्द से भी परम उत्कृष्ट है - भक्त्यानन्द। भक्तिरसामृतसिन्धु में कहा है—

ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परार्द्धगुणीकृतः।
नैति भक्तिसुखाम्भोधेः परमाणुतुलामपि।।[1]
‘ब्रह्मानन्द को यदि परार्धगुना कर दिया जाय, तब भी वह श्रीकृष्णभक्तिसुधासमुद्र की तुलना में एक परमाणु के समान भी नहीं ठहरता।’ प्रह्लाद कहते हैं -

त्वत्साक्षात्करणाह्लादविशुद्धाब्धिस्थितस्य मे।
सुखानि गोष्पदायन्ते ब्रह्मण्यपि जगद्गुरो।।
‘जगद्गुरो! तुम्हारे साक्षात्कारजनित विशुद्ध आनन्द-समुद्र में निमग्न मेरे लिये ब्रह्मानन्द भी गोष्पद (गौ के खुर से बने हुए गड्ढे) के समान प्रतीत होता है।’ श्रीमद्भागवत में ऋषियों ने तथा प्रचेतागण ने कहा है—

तुलयाम लवेनापि न स्वर्ग नापुनर्भवम्।
भगवत्संगिसंगस्य मत्र्यानां किमुताशिषः।।[2]
‘भगवत्प्रेमी भक्तों के क्षणमात्र के संग के साथ स्वर्ग और मोक्ष की भी तुलना नहीं की जा सकती, फिर मनुष्यों के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है?’

प्रश्न होता है - ब्रह्मानन्द की अपेक्षा भक्त्यानन्द - भगवत्सेवानन्द - प्रेमानन्द श्रेष्ठ क्यों है? वह इसलिये है कि ब्रह्मानन्द एकरूप है, उसमें विलास य नव-नवायमानता (नित्य नया-नया विकास) नहीं है। भगवत्सेवानन्द में अनन्त वैचित्री का विलास है। भगवत्सेवानन्द में भी श्रीकृष्णसेवानन्द सर्वश्रेष्ठ है। परंतु गोपीभावापन्न माधुर्य-रसप्रेमी भक्त ‘सेवानन्द’ (सेवा से मिलने वाला आनन्द) भी नहीं चाहते। वे तो केवल ‘अहैतु की सेवा’ चाहते हैं। सेवानन्द में सेवक के मन में अपने आनन्द का अनुसंधान, आवेश, अभिसंधि या पिपासा रह सकती है, पर श्रीकृष्ण के माधुर्यप्रेमी भक्त उस आनन्द को भी विघ्न मानते हैं, यदि वह सेवा में बाधक हो।
एक दिन निकुञ्ज में एक गोपी श्रीराधामाधव को पंखा झल रही थी। श्रीराधामाधव को पंखे की हवा से सुख मिला और उनकी सुखमयी मुखाकृति को देखकर गोपी को इतना आनन्द प्राप्त हुआ कि उस आनन्द के कारण उसमें ‘स्तम्भ’ नामक सात्त्विक भाव का उदय हो गया, इससे हाथ में जड़ता आ गयी और क्षणभर के लिये पंखा झलना रुक गया। इस विघ्न को देखकर गोपी ने अपने उस आनन्द को धिक्कार देकर उसका बड़ा तिरस्कार किया और भविष्य में ऐसे आनन्द की प्राप्ति न हो - इसका निश्चय किया।

विशुद्ध माधुर्य में ऐश्वर्य का अदर्शन तथा विशुद्ध प्रेममयी गोपांगनाओं की महिमा भगवान के प्रति होने वाली भक्ति में भेद रहता है - यहाँ तक कि व्रजधाम के माधुर्य-प्रेम की अनुभूति में भी तारतम्य पाया जाता है। दास्य, सख्य, वात्सल्य - मधुर-रस के हीं अंग हैं; पर इनमें भी रूप तथा कर्ता के भेद से तरतमता आ जाती है। वैसे, शान्तरस- (शान्तरस वस्तुतः माधुर्य की कोटि में बहुत ही थोड़े अंश में आता है) की अपेक्षा दास्त-प्रेम में, दास्य की अपेक्षा सख्य-प्रेम में, सख्य की अपेक्षा वात्सल्य-प्रेम में श्रेष्ठता है। उन सबकी अपेक्षा व्रजांगनाओं के माधुर्य में उत्कृष्ठता है, किंतु ह्लादिनी के विकास की तरतमता के अनुसार इनके प्रेम तथा माधुर्य में भी तारतम्य है। इन सब गोपांगनाओं में भी ह्लादिनी-सार महाभावरूपा श्रीराधा का प्रेम सर्वश्रेष्ठ है।।
जय जय श्यामाश्याम ।।।

No comments:

Post a Comment