हित रस और श्यामसुन्दर भाग 2
श्यामसुन्दर में प्रेमी की अकल्पनीय दशायें प्रकट होती हैं। श्रीराधा में उनकी आसक्ति इतनी प्रबल है कि उसकी समता ढ़ूढ़े नहीं मिलती।
वे स्वयं मदन मोहन हैं। उनकी परछांही देखकर कोटि मदन व्याकुल हो जाते है।
देखत ही तिनकी परछांही, मदन कोअि व्याकुल ह्यै जाही।
किन्तु श्रीराधा के प्रेम- सौन्दर्य ने उनको इतना अधीर बना रखा है कि ‘कोटि कामिनी –कुल ’ से घिरे रहने पर भी उनको धीरज नहीं बधंता।
‘निकट नवीन कोटि कामिनी-कुल धीरज मनहिं न आनै’
एसी जिय होय जो जिय सौ जिय मिलै,
तन सौ तन समाया, ल्यों तो देखौं कहा हो प्यारी ?
तोहि सौं हिलग, आंखिन सौं आंख मिली रह्यैं,
जीवन को यहैं लहा हो प्यारी।
मोकौं इतौ साज कहां री प्यारी, हौं अति दीन तुवबस,
भुव-छेप न जाई सहा हो प्यारी।
श्रीहरिदास के स्वामी श्याम कहत राखिलैं बांहबल,
हौं बपुरा काम-दहा हो प्यारी।[1]
प्रेम-चक्र में पड़े हुए श्याम-सुन्दर की इस विषम स्थिति को ध्रुवदासजी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है, ‘जब घनश्याम अपनी प्रिया का गाढ आलिंगन करते हैं तब वे उनको देख नहीं पाते और उनके नेत्र विरही हो जातें हैं और जब वे उनकी छवि देखने लगते हैं, तब परस्पर न मिलने से, विरह उनके अंगों में संचरित हो जाता है।’
जब ही उर सों घुर लपटाही, तब नैना विरही ह्यैजाहीं।
छटैं जबहि छवि देख्यो करै, विरह आनि अंगनि संचरै।।
श्रीराधा के आश्चर्य मय प्रेम- सौन्दर्य का प्रभाव श्याम-सुन्दर के परम रसिक चित्त के उपर बड़ा अद्भुत पड़ता है। सखीगण से उसका वर्णन करते हुए वे कहते हैं,
‘प्रिया की अंग-अंग की छवि पर मेरे नेत्र इस प्रकार बिके हुए हैं कि उसका अवलोकन करते समय इनके ऊपर अकथनीय ‘भीर’ पड़ जाती है। हे सखे, प्रिया का अंग-अंग अगाध रूप की अवधि है और मेरी बेचारी रसना उसका वर्णन नहीं कर सकती। जिसको देखने मात्र से तन और मन छवि सिन्धु में डूब जाते है, उसको हृदय के भीतर लाने से कैसी कठिन स्थिति बनती होगी ! हजार चतुरता और बुद्धि बल लगाने से इस प्रेम मार्ग में काम नही चलता। यहां तो प्राण प्रिया जिसको मान ले वही ठीक है, स्वयं चतुर बनने से कुछ नही होता। मैं तो प्रिया के हाथ की कठपुतली हूं। वे मेरे हित को लक्ष्य में रखकर मुझको जैसे नचाती हैं, मैं वैसे ही नाचता हूं। मेरे सुख की स्थिति, मेरा जीवन, मेरा बल-वित्त, मेरा सर्वस्व दूसरे के हाथ में पड़ गया है|' जय जय श्यामाश्याम ।।
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